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अनादि संबंध का अन्त कैसे ?
पुण्य पाप अपना-अपना
तं पुण्णं पावं वा ठियमत्तणि बज्झपच्चया विक्खं । कालंतरपागाओ देइ फलं न परओ लब्भं ॥
( विभा ३२३८ )
बाह्य निमित्तों
पुण्य और पाप आत्मस्थित हैं किन्तु की अपेक्षा रखते हैं, काल-परिपाक से फल देते हैं । पुण्यपाप का फल स्वतः प्राप्त होता है, दूसरों से नहीं ।
पत्तेयं पुण्णपावं । पुण्य और पाप अपना-अपना होता है । नो कर्म
(दचू १ सूत्र १५ )
नोकर्म --- ग्रहणप्रायोग्यानि मुक्तानि द्रव्याणि । (उच् पृ २७७) कर्मग्रहण के प्रायोग्य पुद्गलद्रव्य तथा कर्मरूप में भोगने के बाद आत्मा से छूटे हुए कर्म पुद्गलद्रव्य नोकर्म कहलाते हैं ।
२६. वीतराग के कर्मबन्ध
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ईरियावहिया सा अप्पमत्तसंजतस्स वीतरागछ उमत्थकेवलस्स वा । आउतं गच्छमाणस्स वा आउत्तं चिट्ठमाणस्स वा आउत्तं निसीदमाणस्स वा आउत्तं तुयट्टमाणस् वा आउत्तं भुंजमाणस्स वा आउत्तं भासमाणस्स वा आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पादपुंछणं माणस निक्खेवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हनिवातमवि अत्थि माता हुमा किरिया इरियावहिया कज्जति । सा पढमसमये
या बितियसमये वेदिता ततियसमये निज्जिण्णा । सा बद्धा पुट्ठा उदिता वेदिता निज्जिण्णा, सेअकाले अकम्मं वावि भवति । ( आव २ पृ९२)
अप्रमत्तसंयत छद्मस्थ वीतराग अथवा केवली वीतराग के ईर्यापथिक कर्म का बन्ध होता है । जब केवली संयम पूर्वक चलते हैं, खड़े होते हैं, बैठते हैं, सोते हैं, आहार करते हैं, बोलते हैं, वस्त्र पात्र कम्बल - पादप्रोञ्छन लेतेरखते हैं अथवा आंख का उन्मेष निमेष करते हैं, तब उनके ईर्यापथिक सूक्ष्म क्रिया होती है । उस बंध की स्थिति दो समय की होती है। प्रथम समय में वह कर्म - बद्ध - स्पृष्ट होता है, दूसरे समय में वेदित होता है और तीसरे समय में निर्जीर्ण हो उदित, वेदित और निर्जीर्ण कर्म अंत में अकर्म भी हो जाता है ।
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२७. कर्म और शरीर का अनादि संबंध संताणोऽणाई परोप्परं देहस्स य कम्मस्स य गोयम !
उ
कर्म
भावाओ ।
कुराणं व ॥
( विभा १६३९ )
प्रवाह रूप से अनादिकालीन कर्म और देह में परस्पर हेतु हेतुमद्भाव है । कर्म से शरीर और शरीर से कर्म उत्पन्न होते हैं । जैसे- बीज से अंकुर और अंकुर से बीज पैदा होता है ।
२८. आत्मा और कर्म का अनादि संबंध
नय कम्मस्स वि पुव्वं कत्तुरभावे समुब्भवो जुत्तो । निक्कारणओ सोविय तह जुगवप्पत्ति भावे य ।। न हि कत्ता कज्जं ति य जुगवत्पत्तीए जीवकम्माणं । जुत्तो ववएसोऽयं जह लोए गोविसाणा ॥
( विभा १८०९, १८१० )
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१. क्या पहले कर्म और बाद में जीव हुआ ? नहीं । कर्म का कर्त्ता जीव है इसलिए जीव के अभाव में कर्म नहीं होते ।
२. कर्म निष्कारण नहीं होते । निष्कारण होते हैं ऐसा मानने से वे निष्कारण ही विनष्ट हो जायेंगे । ३. जीव और कर्म की उत्पत्ति युगपत् भी नहीं होती ।
युगपद् उत्पन्न होने पर 'यह जीव कर्त्ता है' और 'यह ज्ञानावरणीय आदि कर्म - समूह उसका कार्य है - ऐसा व्यपदेश नहीं हो सकता । जैसे- गाय के दो सींगों में एक सींग दूसरे का कर्त्ता या कार्य नहीं होता । तो कि जीव- नहाण व अहजोगो-कंचणोवलाणं व । जीवरस य कम्मस्स य भण्णइ दुविहो वि न विरुद्धो ॥ पढमोऽभव्वाणं चिय भव्वाणं कंचणोवलाणं व । ... ( विभा १८२०, १८२१ ) क्या जीव और कर्म का संबंध जीव और आकाश की तरह अनादि - अनन्त है या स्वर्ण और उपल की तरह अनादि- सान्त है ? जीव और कर्म में दोनों प्रकार का संबंध है । जैसे- अभव्य प्राणी में जीव और कर्म का संबंध अनादि-अनन्त है और भव्य प्राणी में जीव और कर्म का संबंध अनादि- सान्त है ।
२६. अनादि संबंध का अन्त कैसे ?
जं संताणोऽणाई तेणाणतोऽवि णायमेगंतो । दीसह संतो वि जओ कत्थइ बीयं- कुराईणं ॥
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