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कर्म
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कर्म
नोसुयकरणं दुविहं गुणकरणं तह य मुंजणाकरणं । गुण तवसंजमजोगा जंजण मणवायकाए य ।।
(उनि २०४) करण (क्रिया)
नोश्रुतकरण के दो प्रकार हैं१. गुणकरण - तपोयोग, संयमयोग । २. योजनाकरण-मनोयोग, वचनयोग, काययोग ।
नाम स्थापना द्रव्य
क्षेत्र
काल
भाव
-- |-
संज्ञा
नोसंज्ञा
अजीव
-|
वित्रसा
विस्रसा
प्रयोग
प्रयोग
श्रुत
नोश्रुत
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-
-
चाक्षुष अचाक्षुष जीव अजीव बद्ध अबद्ध गुण योग करणसत्तरी-प्रयोजन होने पर किया जाने वाला ५. दर्शनावरण कर्म
अनुष्ठान । इसके सत्तर अंग हैं- ६. वेदनीय कर्म पिंडविसोही समिई भावण पडिमा य इंदियनिरोहो । ७. मोहनीय कर्म पडिलेहणगुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ।। ० दर्शन मोहनीय के प्रकार
(ओभा ३) ० चारित्र मोहनीय के प्रकार चार प्रकार की पिंडविशोधि, पांच समिति, बारह * कषाय मोहनीय
(द्र. कषाय) भावना, बारह प्रतिमा, पांच प्रकार का इंद्रियनिग्रह,
नोकषाय मोहनीय पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्ति और चार
* मोहकर्म के क्षय आदि से सम्यक्त्व प्राप्ति प्रकार का अभिग्रह (पिंड, शय्या, वस्त्र, पात्र)---इन्हें
(द्र. सम्यक्त्व) करणसत्तरी कहा जाता है।
८. आयुष्य कर्म कर्म-जीव की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति से आकृष्ट • आयुष्य का बंध कब?
सुख-दुःख एवं आवरण के हेतुभूत पुद्गल- ० आयुष्यबंध और आकर्ष स्कन्ध ।
० सोपक्रम-निरुपक्रम आयुष्य १. कर्म का निर्वचन
• आयुष्य के उपक्रम २. कर्म बंध का हेतु और प्रकार
* शीर्षप्रहेलिका : आयुष्य का मापन (द्र. काल) ३. कर्म के प्रकार
९. नाम कर्म ४. ज्ञानावरण कर्म
• शुभ नामकर्म की प्रकृतियां *ज्ञानावरण का क्षयोपशम सब जीवों में (द्र . ज्ञान) ० अशुभ नामकर्म की प्रकृतियां * स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय
१०. गोत्र कर्म (द्र. स्वाध्याय) ___* वन्दना से नीच गोत्र कर्म का क्षय (5. वन्दना)
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