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एषणासमिति
प्राभृतिका तथा अध्यवतर ।
औद्देशिक, मिश्रजात तथा अध्यवतर के कुछ भेद अविशोधिकोट में तथा कुछ भेद विशोधिकोटि में हैं।
२.
विशोधिकोटि - इसके अनेक प्रकार हैं— क्रीत, प्रामित्य आदि ।
६. उत्पादन दोषों के प्रकार
धाई दूइ निमित्ते आजीव वणीमगे तिमिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए ॥ पुव्वि पच्छा संथव विज्जा मंते य चुन्न जोगे य । दोसा सोलसमे मूलम् ॥ (पिनि ४०८, ४०९ )
उपायणाइ
उत्पादन के सोलह दोष हैं१. धात्री - धाय की तरह बालक को खिलाकर भिक्षा लेना ।
२. दूती - दूती की तरह संवाद बताकर भिक्षा लेना । ३. निमित्त भावी शुभ-अशुभ बताकर भिक्षा लेना । ४. आजीव --- अपनी जाति, कुल आदि का परिचय देकर भिक्षा लेना ।
५. वनीपक - भिखारी की तरह दीनता दिखाकर भिक्षा लेना ।
६. चिकित्सा -- वैद्य की तरह चिकित्सा कर भिक्षा लेना ।
७. क्रोध क्रोध का प्रदर्शन कर भिक्षा लेना ।
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८. मान मान, ९. माया माया" १०. लोभ - लोभ ,, I ११. संस्तव परस्पर परिचय - प्रशंसा कर भिक्षा लेना । १२. विद्या -- विद्या ( देवी अधिष्ठित ) का प्रयोग कर भिक्षा लेना ।
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१३. मंत्र - मंत्र ( देव अधिष्ठित ) का प्रयोग कर भिक्षा लेना |
१४. चूर्ण - अंजन, इष्ट का चूर्ण आदि का प्रयोग कर भिक्षा लेना ।
१५. योग - आकाशगमन आदि के निष्पादक द्रव्यसंघात का प्रयोग कर भिक्षा लेना ।
१६. मूलकर्म - गर्भपात, वशीकरण आदि के उपाय बताकर भिक्षा लेना ।
ग्रहणषणा के प्रकार और विवरण
धम्मक वाय खमणं निमित्त आयावणे सुयट्ठाणे । जाई कुल गण कम्मे सिप्पम्मि य भावकीयं तु ॥ (पिनि ३१२ ) मैं धर्मकथाकार हूं, मैं वादी हूं, मैं तपस्वी हूं, मैं निमित्तज्ञ हूं, मैं आतापना लेता हूं, मैं आचार्य हूं, मैं अमुक जाति, कुल और गण का हूं, मेरा अमुक शिल्पकर्म है -- इस प्रकार जो आत्मभावों को खाद्य-पदार्थों के लोभ से बेच देता है - यह भावकीत दोष है ।
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इथियं पुरिसं वा वि, डहरं वा महल्लगं । वंदमाणी न जाएज्जा, नो य णं फरुसं वए । (द. ५/२०२९)
मुनि स्त्री या पुरुष, बाल या वृद्ध की वन्दना (स्तुति) करता हुआ याचना न करे, ( न देने पर ) कठोर वचन न बोले ।
७. ग्रहणषणा की परिभाषा
एवं तु गविस्सा उग्गमउप्पायणाविसुद्धस्स । गहण विसोहिविसुद्धस्स होइ गहणं तु पिंडस्स || (पिनि ५१३) उद्गम और उत्पादन के दोषों से रहित गवेषणा करने के पश्चात् शंका आदि एषणा के दोषों से विशुद्ध आहार का ग्रहण करना ग्रहणषणा है ।
.....गहणे सणाइ दोसे आयपरसमुट्ठिए वोच्छं ॥ दोन साहसमुत्था संकिय तह भावओऽपरिणयं च । सेसा अट्ठवि नियमा गिहिणो य समुट्टिए जाण ॥ (पिनि ५१४,५१५) ग्रहणपणा के दोष साधु और गृहस्थ- दोनों से संबंधित हैं । शंकित और भावतः अपरिणत- ये दो दोष साधु से समुत्थित तथा शेष आठ दोष गृहस्थ से समुत्थित हैं।
८. ग्रहणषणा के प्रकार और विवरण
संकिय मक्खिय निक्खित्त पिहिय साहरिय दायगुम्मी से । अपरिणय लित्त छडिय एसणदोसा दस हवंति ॥ ( पिनि ५२० )
ग्रहणैषणा के दस प्रकार हैं
१. शंकित - - आधा कर्म आदि दोषों की संभावना । २. म्रक्षित - सचित्त रजों से युक्त हाथ आदि । ३. निक्षिप्त- सचित्त वस्तु पर स्थापित देय वस्तु । ४. पिहित - सचित्त वस्तु से ढकी हुई देय वस्तु ।
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