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आहार
आहार करने की विधि
साहवा तो चियत्तेणं, निमंतेज्ज जहक्कम । सुरहीदोच्चंगट्ठा छोढण दवं तु पियइ दवियरसं । जइ तत्थ केइ इच्छेज्जा, तेहिं सद्धि तु भुंजए । हेटोवरि आमट्ठ इय एसो भुंजणे अविही ।। अह कोइ न इच्छेज्जा, तओ भंजेज्ज एक्कओ। जह गहि तह नीयं गहणविही भोयणे विही इणमो । आलोए भायणे साह, जयं अपरिसाडयं ।। उक्कोसमणुक्कोसं समकयरसं तु भुजेज्जा ॥ (द ५११२९५,९६)
(ओभा २९६-२९८) आहार के लिए मुनि प्रेमपूर्वक साधुओं को यथाक्रम काक और शृगाल की तरह खाना अविधिभुक्त है। निमन्त्रण दे। उन निमन्त्रित साधुओं में से यदि कोई जैसे--- काक गोबर आदि में छिपे अनाज के दानों को साधु भोजन करना चाहे तो उनके साथ भोजन करे। खाता है, शेष को इधर-उधर बिखेर देता है तथा खाते
यदि कोई साधु न चाहे तो अकेला ही खले पात्र में समय इधर-उधर देखता रहता है। शृगाल अपने भाज्य यतनापूर्वक नीचे नहीं डालता हुआ भोजन करे।
के भिन्न-भिन्न भागों को खाता है, क्रमशः नहीं खाता। इच्छिज्ज न इच्छिज्ज व तहविय पयओ निमंतए साह ।
वैसे ही मनोज्ञ-मनोज्ञ आहार करना, परिशाटन करते परिणामविसुद्धीए अ निज्जरा होअगहिएवि ।।
हुए खाना, पात्र में रखे आहार को उथल-पुथल कर, (ओनि ५२५)
इधर-उधर झांकते हुए खाना अविधि-भुक्त है। - मुनि साधुओं को सद्भाव से आहार के लिए
सुरभित तीमन, ओदन आदि से मिला हुआ हो तो निमन्त्रित करे । कोई साधु इच्छापर्वक निमन्त्रण स्वीकार
ओदन को छोड़कर सुरभित तीमन को पीना द्रवित रस करे या न करे, परिणाम विशुद्धि के कारण निमन्त्रणकर्ता
है । यह विधिसम्मत नहीं है। के तो निर्जरा होती ही है।
जो आहार गृहस्थ से जिस रूप में ग्रहण किया,
उसे उसी रूप में लाना तथा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट द्रव्यों को आहार का स्थान .
समीकृत कर खाना विधिसम्मत है। अणुनवेत्तु मेहावी, पडिच्छन्नम्मि संवडे ।
कडपयरच्छेएणं भोत्तव्वं अहव सीहखइएणं ।। हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्थ भुंजेज्ज संजए ।
(ओभा २८८) (द ५११८३) खण्ड-खण्ड करके खाना, प्रतररूप में खाना, सिंह गोचराग्र के लिए गया हआ मेधावी मुनि स्वामी से की तरह अपने भोज्य के भिन्न-भिन्न भागों को क्रमश: अनुज्ञा लेकर, छाये हुए एवं संवत स्थल में बैठे, हस्तक खाना विधिसम्मत है। (वस्त्र-खंड) से शरीर का प्रमार्जन कर वहां आहार करे। सकाष्टांत अप्पपाणेऽप्पवीयं मि, पडिच्छन्नमि संव डे ।
जहा सप्पो सर त्ति बिलं पविसति तहा साहुणा समयं संजए भुजे, जयं अपरिसाडयं ।।
अरत्तदुढेणं हणुयाओ हणुयं असंकामेंतेण भोत्तव्यं । (उ ११३५)
(दअचू पृ८) संयमी मुनि प्राणी और बीज रहित, ऊपर से ढके
जैसे सर्प बिल में सीधा प्रविष्ट होता है, वैसे ही हए और पार्श्व में भित्ति आदि से संवत आश्रय में अपने
रागद्वेषमुक्त मुनि आहार को सीधा निगल जाए, स्वाद के सहधर्मी मूनियों के साथ, भूमि पर न गिराता हआ,
लिए एक जबड़े से दूसरे जबड़े में न ले जाए। यतनापूर्वक आहार करे।
एसो आहारविही जह भणिओ सव्वभावदंसीहिं । ४. आहार करने की विधि
धम्मावस्सगजोगा जेण न हायंति तं कुज्जा ।। कागसियालक्खइयं दविअरसं सव्वओ परामठें।
(पिनि ६७०) एसो उ भवे अविही, जहगहि भोयणम्मि विही ।।
यह आहार-विधि अर्हतों द्वारा प्रतिपादित है। (ओनि ५९३)
इसके पालन से श्रुत-अध्ययन, चारित्र और आवश्यक उच्चिणइ व विट्ठाओ कागो अहवावि विक्खिरइ सव्वं । योगों की हानि नहीं होती-प्रतिक्रमण आदि प्रवृत्तियां विप्रोक्खइ य दिसाओ सियालो अन्नोन्नहिं गिण्हे॥ निर्बाध चलती हैं।
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