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आनुपूर्वी बनाने की विधि
forare आगासत्थिकाए अधम्मत्थिकाए धम्मत्थिकाए । ( अनु १४९ ) पश्चानुपूर्वी - अध्वासमय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और धर्मास्तिकाय |
एयाए चेव एगाइयाए एगुत्तरियाए छगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णभासो दुरूवूणो । से तं अणाणुपुव्वी । ( अनु १५० )
प्रारम्भ में एक और उत्तरोत्तर एक-एक वृद्धि वाली छह समुदाय वाली श्रेणी को परस्पर गुणन करने पर जो प्राप्त होता है, उससे दो (आदि और अन्त) कम, वह अनानुपूर्वी है ।
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आनुपूर्वी
जो जस्स आदीए स तस्स जेट्ठो भवति । जहा दुगस्स एगो जेट्ठो, अणुजेट्ठो तिगस्स एक्को, जेट्ठाणुजेट्ठो जहा चक्कस एक्को, अतो परं सव्वे जेट्टाणुजेट्ठा भणितव्वा । ( अनुचू पृ ३१ ) विवक्षित पदों की क्रमशः स्थापना पूर्वानुपूर्वी है । उसके नीचे शेष भंगों की यथाज्येष्ठ स्थापना की जाती है । जो जिसके आदि में होता है, वह ज्येष्ठ है । जैसे दो का ज्येष्ठ एक है । तीन के लिए एक अनुज्येष्ठ है । चार, पांच आदि के लिए एक ज्येष्ठानुज्येष्ठ है । उपरितन अंक के नीचे ज्येष्ठ अंक स्थापित किया जाता है । यदि ज्येष्ठ अंक न हो तो अनुज्येष्ठ और उसके अभाव में ज्येष्ठानुज्येष्ठ का न्यास किया जाता है । विशेष ज्ञातव्य है कि इस अंकन्यास में समयभेद का वर्जन अनिवार्य है । समयभेद का अर्थ है - एक ही भंग रचना में दो सदृश अंकों की स्थापना ।
करणं अणाणुपुव्वीणं एगो बेहि गुणिज्जति जाता न । दोन्नि तिहि गुणिज्जंति जाता छ । चउहि गुणिज्जं ति जाता चउव्वीसं । चउव्वीसा पंचहि गुणिज्जति जातं सयं वीसं । तं छहिं गुणेत्ता जावतिओ रासी सो दो ऊणो कीरति । पुव्वाणुपुव्वी य पच्छाणुपुव्वी य दोवि अवणिज्जंति, तो अण्णाणुपुव्वीतो होंति ।
( आवचू १ पृ ८२ ) स्थापित हैं—– १,२,३, करने पर दो, दो
यहां एक से छह तक के अंक ४,५,६ । एक को दो से गुणन को तीन से गुणन करने पर छह, छह को चार से गुणन करने पर चौबीस चौबीस को पांच से गुणन करने पर एक सौ बीस होते हैं। एक सौ बीस को छह गुणन करने पर सात सौ बीस होते हैं। इनमें से दो कम करने पर - - पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी का अपनयन करने पर अनानुपूर्वी होती है ।
से
( देखें - अनुयोगद्वार सूत्र १५० का टिप्पण )
५. आनुपूर्वी बनाने की विधि
पुव्वाणपुव्वि हेट्ठा समयाभेदेण कुण जहाजेट्ठ । उवरिमतुल्लं पुरओ नसेज्ज पुव्वक्कमो सेसे ||
ट्ठिति - पढमाए पुव्वाणुपुव्विलताए अहो भंगरयणं बितियादिलतासु । समया इति इह अणाणुपुव्विभंगरयणव्यवस्था समयो तं अभिदमाणोत्ति तं भंगरयणव्यवस्थं अविणासेमाणो । तस्स य विणासो जति सरिसंकं एगलताए ठवेति, जति व ततिय लक्खणातो उवक्कमेणं पट्टवेति ता भिण्णो समय । तं भेदं अकुव्वमाणो, कुणसु जधाजेट्ठत्ति
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द्वितीय भंगरचना की पंक्ति में अंतिम अंकन्यास प्रथम पंक्ति के अंतिम अंक के सदृश होता है। शेष अंक पूर्वक्रम से स्थापित किये जाते हैं । पूर्वक्रम का अर्थ है - पहले छोटी संख्या तत्पश्चात् बड़ी संख्या अर्थात् एक के बाद दो
पुव्वाणुपुव्वी इच्छित जति वण्णा ते परोप्परब्भत्था । अंतहियभागलद्धा वोच्चत्थं काण ठते ॥ आदित्थेसुवि एवं जे जत्थ ठिता य ते तु वज्जेज्जा । सेसेहि य वोच्चत्थं कमुक्कमा पूर सरिसेहि ॥ भागहितलद्धठवणा दुगादि एगुत्तरेहिं अब्भत्था । सरिसंकरयणठाणा तिगादियाणं मुणेयव्वा ॥ पढमदुगट्ठाणेसु जेट्ठादितिगेण अत्तदितो । अणुलोमं पडिलोमं पूरे सेसेहि उवउत्तो ॥ ( अनुचू पृ ३१ ) पूर्वानुपूर्वी में स्थापित अंकों का परस्पर गुणन करने पर जो संख्या आती हो, उतने ही विकल्प होते हैं । हैं। जैसे - तीन संख्या के विकल्प करने हों तो १×२×३=६
अंतस्थित का भाग देने पर – १ = २
दो विकल्पों में अंतिम अंक सदा अपरिवर्तित रहेगा। दो विकल्पों के बाद तीसरे विकल्प में तीसरा अंक परिवर्तित होगा ।
प्रथम दो स्थान सदा अनुलोम-विलोमक्रम से बदलते रहेंगे । उनके नीचे सदृश अंक नहीं आयेगा ।
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