________________
आचार
नो हलो गाए आया रमहिट्ठेज्जा । नो पर लोगट्टयाए आयारम हिट्ठेज्जा । नो कित्तवण्णसद्द सिलोगट्टयाए आयार महिट्ठेज्जा । नत्थरहंतेहि ऊहिं आयारमहिट्ठेज्जा | (द ९/४/७ )
आचार-समाधि के चार प्रकारइहलोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना
चाहिए ।
परलोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना चाहिए ।
कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के निमित्त आचार का पालन नहीं करना चाहिए ।
आर्हत हेतु के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से आचार का पालन नहीं करना चाहिए । १०. आचार-सम्पन्नता के परिणाम
जिणaarरए अतितिणे, पडिपुण्णाययमाययट्ठिए । आयारसमाहिसंवुडे, भवइ य दंते भावसंधए । (द ९/४/५ ) जो जिनवचन में रत होता है, जो प्रलाप नहीं करता, जो सूत्रार्थ से परिपूर्ण होता है, जो अत्यन्त मोक्षार्थी होता है, वह आचारसमाधि के द्वारा संवृत होकर इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला तथा मोक्ष को निकट करने वाला होता है ।
११. आचार - अतिक्रमण के स्थान -
आहाकम्मनिमंत्रण पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ । पयभेयाइ वइक्कम गहिए तइएयरो गिलिए ॥ (पिनि १८२ ) साधु के योग्य आचार का अतिक्रमण करना अतिक्रम है। जैसे--- साधु के लिए आधाकर्म आहार का ग्रहण निषिद्ध है । उस आहार का निमन्त्रण स्वीकार करना अतिक्रम, उसको लाने के लिए प्रस्थान करना व्यतिक्रम, उसे ग्रहण करना अतिचार तथा उसका परिभोग करना अनाचार है ।
१२. अतिचार क्या ?
सयणासणणपाणे, चेइयजइसेज्जकाय उच्चारे । समितीभावणगुत्ती, वितहायरणम्मि अइयारो ॥ ( आवनि १४९८ )
Jain Education International
आचारांग
शयन, आसन, अन्न, पानी, चैत्य, यति, शय्या, उच्चार- प्रस्रवण, समिति, भावना और गुप्ति इन विषयों में विपरीत आचरण करना अतिचार है ।
८८
१३. अतिचार का हेतु
सव्वे चिय अइयारा संजलणाणं तु उदयओ होंति । मूलछेज्जं पुण होइ बारसहं कसायाणं ॥
( विभा १२४९ ) सब अतिचार संज्वलन कषाय के उदय से होते हैं । मूल (संयमघाती ) अतिचार अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यान चतुष्क और प्रत्याख्यान चतुष्क के उदय से होते हैं ।
१४. ज्ञान के अतिचार
.....वाइद्ध वच्चामेलियं, हीणक्खरं, अच्चक्खरं यहीणं, विणयहीणं, घोसहीणं, जोगहीणं, सुट्ठदिन्नं दुट्टुपडिच्छियं, अकाले कओ सज्झाओ, काले न कओ सज्झाओ, असज्झाइए सज्झाइयं, सज्झाइए न सम्झाइयं । ( आव ४1८ )
ज्ञान के चौदह अतिचार हैं
१. व्याविद्ध - आगम पाठ को आगे-पीछे करना । २. व्यत्याम्रेडित-मूल पाठ में अन्यपाठ का मिश्रण
...
करना ।
३. हीनाक्षर-अक्षरों को न्यून कर उच्चारण करना । ४. अत्यक्षर-अक्षरों को अधिक कर उच्चारण
करना ।
५ पदहीन - पदों को कम कर उच्चारण करना । ६. विनयहीन - विराम - रहित उच्चारण करना । ७. घोषहीन - उदात्त आदि घोष रहित उच्चारण
करना ।
८.
. योगहीन सम्बन्ध रहित उच्चारण करना । ९. सुष्ठुदत्त -- योग्यता से अधिक ज्ञान देना । १०. दुष्ठु प्रतीच्छित- - ज्ञान को सम्यग् भाव से ग्रहण न
करना ।
११. अकाल में स्वाध्याय करना ।
१२. स्वाध्याय काल में स्वाध्याय न करना ।
१३. अस्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय करना । १४. स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न करना ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org