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चार
पर्यक-वर्जन
दर्शन के आठ आचार
चूला २) का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा याचित चारित्र के आठ आचार
वसति और जिसने 'वस्त्रषणा' (आयारचूला ५) का तप के बारह आचार
अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा आनीत वस्त्र, ऋतु
बद्ध काल में अयोग्य व्यक्ति को प्रवजित करना तथा ७. श्रमण-आचार के स्थान
वर्षाकाल में किसी को भी प्रव्रजित करना- यह 'शैक्ष वयछक्कं कायछक्कं, अकप्पो गिहिभायणं ।
स्थापना अकल्प' कहलाता है। पलियंक निसेज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं ॥
गृहस्थपात्र-वर्जन (द ६७)
कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो । श्रमण-आचार के अठारह स्थान---
भुंजतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ ।। १. अहिंसा १०. वायुकाय-संयम
(द ६१५०) २. सत्य ११. वनस्पतिकाय-संयम
जो गहस्थ के कांसे के प्याले, कांसे के पात्र और ३. अचौर्य १२. त्रसकाय-संयम
कुण्डमोद (कुंडे के आकार का कांस्य भाजन) में अशन, ४. ब्रह्मचर्य १३. अकल्प वर्जन
पान आदि खाता है, वह श्रमण के आचार से भ्रष्ट होता ५. अपरिग्रह
१४. गृहि-भाजन-वर्जन है। ६. रात्रि-भोजन त्याग १५. पर्यक-वर्जन
सीओदगसमारंभे, मत्तधोयणछड्डणे । ७. पृथ्वीकाय-संयम १६. गहान्तर निषद्या-वर्जन
जाई छन्नंति भूयाई, दिट्ठो तत्थ असंजमो ॥ ८. अपकाय-संयम १७. स्नान-वर्जन
..."पच्छाकम्म पूरेकम्म, सिया तत्थ न कप्पई ।। ९. तेजस्काय-संयम १८. विभूषा-वर्जन
(द ६१५१,५२) अकल्प-वर्जन
बर्तनों को सचित्त जल से धोने में और बर्तनों के
धोए हुए पानी को डालने में प्राणियों की हिंसा होती पढमं उत्तरगुणो अकप्पो। सो दुविधो, तं जहा
है। तीर्थंकरों ने वहां असंयम देखा है। सेहट्ठवणाकप्पो अकप्पट्टवणावप्पो य।
गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने में 'पश्चात् कर्म' (दजिचू पृ० २२६)
और 'पुरःकर्म' की संभावना है। वह निर्ग्रन्थ के लिए अकल्प-वर्जन प्रथम उत्तरगुण है। अकल्प के दो
कल्प्य नहीं है। भेद हैं शैक्षस्थापना अकल्प, अकल्पस्थापना अकल्प ।
पर्यक-वर्जन पिंड सेज्जं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य ।
आसंदीपलियंकेसु, मंचमासालएसु वा। अकप्पियं न इच्छेज्जा, पडिगाहेज्ज कप्पियं ॥
अणायरियमज्जाणं, आसइत्तु सइत्तु वा ॥ (द ६१४७)
गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा। मुनि अकल्पनीय पिण्ड, शय्या-वसति, वस्त्र और
आसंदीपलियंका य, एयमठ्ठ विवज्जिया ।। पात्र को ग्रहण करने की इच्छा न करे किन्तु कल्पनीय
(द ६।५३,५५) ग्रहण करे । (यह अकल्पस्थापना अकल्प है।)
आर्यों के लिए आसंदी, पलंग, मंच और आसालक सेहटवणाकप्पो नाम जेण पिण्डणिज्जुत्ती ण सुता (अवष्टंभ सहित आसन पर बैठना या सोना अनाचीर्ण तेसु आणियं न कप्पइ भोत्तुं । जेण सेज्जाओ ण सुयाओ तेण वसही उग्गमिता ण कप्पई। जेण वत्थेसणा ण सुया आसंदी आदि गंभीर छिद्र वाले होते हैं। इनमें तेण वत्थं । उडुबद्ध अणला ण पव्वाविज्जति, वासासु प्राणियों का प्रतिलेखन करना कठिन होता है। इसलिए सव्वेऽवि।
(दजिचू पृ २२६) आसंदी, पलंग आदि पर बैठना या सोना वजित किया जिसने पिण्डनियुक्ति का अध्ययन न किया हो, है। उसके द्वारा लाया हुआ भक्तपान, जिसने शय्या (आयार
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