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अप्रमत्त नियमत: अहिंसक
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अहिंसा
एक्कंमिवि पाणिवहंमि देसिअं सुमहदंतरं समए ।
जेवि न वावज्जंती नियमा तेसिं पहिंसओ सो उ। एमेव निज्जरफला परिणामवसा बहुविहीआ ॥
सावज्जो उ पओगेण सव्वभावेण सो जम्हा ॥ (ओनि ५२)
(ओनि ७५२,७५३) एक ही समय में समान प्राणवध होने पर भी उसके जो प्रमत्त पुरुष अपने प्रमत्त योगों के प्रयोग से बंध में महान् अन्तर रह सकता है। एक जीव अति प्राणिवध करता है, वह अवश्य हिंसक है। यदि उसकी संक्लिष्ट परिणाम से प्राणवध करता हुआ सातवीं नरक प्रवत्ति से प्राणिवध न भी हो, तब भी वह निश्चयतः में उत्पन्न हो सकता है। दूसरा जीव प्राणवध करते समय हिंसक है, क्योंकि उसके मन, वचन और काया का अति संक्लिष्ट परिणाम नहीं होने के कारण दूसरी नरक प्रयोग सावद्य/सपाप है। में उत्पन्न हो सकता है। निर्जरा में भी परिणामधारा के
७. अवती हिंसक है अनुसार विसदृशता रहती है।
यो यस्मादविरत: स तदकुर्वन्नपि परमार्थतः कुर्वन्नेव ६. हिंसक कौन ? अहिंसक कौन ?
अवसेयो यथा रात्रिभोजनादनिवृत्तो रात्रिभोजनम् । पंचसमिओ तिगुत्तो नाणी अविहिंसओ न विवरीओ।
(पिनिवृ प ३७) होउ व संपत्ती से मा वा जीवोवरोहेणं ॥
जो अविरत-असंयमी है, वह हिंसा न करता हुआ
(विभा १७६५) भी वस्ततः हिंसा करता ही है। जैसे रात्रिभोजन पांच समिति से समित और तीन गुप्ति से गुप्त, जीव से जो निवृत्त नहीं है, वह रात्रिभोजन न करता हुआ भी और अजीव के ज्ञाता मुनि द्वारा यदि कोई जीव-वध हो रात्रिभोजी होता है। भी जाए तो भी वह अहिंसक है, क्योंकि वह अप्रमत्त
८. अप्रमत्त नियमतः अहिंसक होकर चलता है।
अहणतो वि हु हिंसो दुटुत्तणओ मओ अहिमरो व्व । नाणी कम्मस्स खयट्ठमुट्ठिओऽणुट्ठितो य हिंसाए । बाहिंतो न वि हिंसो सुद्धत्तणओ जहा विज्जो ।। जयइ असढं अहिसत्थमुट्रिओ अवहओ सो उ ।
(विभा १७६४)
तस्स असंचेअयओ संचेययतो य जाई सत्ताई। जिसके परिणाम अशुद्ध हैं, वह न मारता हआ भी
जोगं पप्प विणस्संति नत्थि हिंसाफलं तस्स ॥ हिंसक है, जैसे- गजघातक । जिसके परिणाम शुद्ध हैं,
(ओनि ७५०,७५१) वह प्राणिवध करता हुआ भी अहिंसक है, जैसे-वैद्य । जो ज्ञानी पुरुष कर्मक्षय के लिए उत्थित और हिंसा असुभो जो परिणामो सा हिंसा सो उ बाहिरनिमित्तं ।
में अनुत्थित है, वह कर्मबन्ध नहीं करता। अहिंसा में को वि अवेक्खेज्ज न वा जम्हाऽणेगंतियं बझं ॥
उत्थित पुरुष यदि शुद्धभाव से प्रवृत्ति करता है, उससे (विभा १७६६)
जान या अनजान में सहसा प्राणिवध होने पर भी वह जो अशुभ परिणाम है, वह हिंसा है। हिंसा में अवधक है, उसे हिंसा का दोष नहीं लगता। बाहरी निमित्त अनैकान्तिक है-वहां प्राणवध होता भी रत्तो वा दुट्ठो वा मूढो वा जं पउंजइ पओगं । है और नहीं भी होता।
हिंसावि तत्थ जायइ तम्हा सो हिंसओ होइ॥ असुभपरिणामहेऊ जीवाबाहो त्ति तो मयं हिंसा ।
न य हिंसामित्तेणं सावज्जेणावि हिंसओ होइ । जस्स उ न सो निमित्तं संतो विन तस्स सा हिंसा ।। सुद्धस्स उ संपत्ती अफला भणिया जिणवरेहिं ॥ (विभा १७६७)
(ओनि ७५७,७५८) जिस जीववध का हेतु अशुभ परिणाम है, वह हिंसा राग-द्वेष और मूढ़ता के वशीभूत हो जो मन, वचन, है। जहां प्राणवध का निमित्त अशुभ परिणाम नहीं है, काया का प्रयोग करता है, उसे हिंसा का दोष लगता वहां प्राणवध होने पर भी हिंसा नहीं है।
है, वह हिंसक है। हिंसामात्र से हिंसक नहीं होता। जो जो य पमत्तो पुरिसो तस्स य जोगं पड़च्च जे सत्ता। रागद्वेष मुक्त शुद्ध है, वह हिंसा से होने वाले कर्मफल का वावज्जंते नियमा तेसिं सो हिंसओ होइ।। भागी नहीं होता-ऐसा अर्हतों ने कहा है।
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