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पुरोवाक्
दो इन्द्रिय वाले प्राणी में भाषा की लब्धि का विकास नहीं है। तीन, चार, पांच इन्द्रिय वाले प्राणियों में भी भाषा का विकास नहीं होता । पशु और पक्षी समनस्क हैं, वे सोचते हैं, कल्पना भी करते हैं लेकिन उनमें भाषा का स्वल्प मात्रा में ही विकास हुआ है। उनका मस्तिष्क विकसित नहीं है इसलिए उनका शब्दकोश बहुत छोटा है। मनुष्य ने मस्तिष्क का विकास बहुत किया है। उसकी चिन्तनशक्ति, कल्पनाशक्ति, स्मृति और विवेक बहत विकसित है। उसने बुद्धि और मन का संयोग कर भाषा का विकास किया है। उसका शब्दकोश बहुत बड़ा है।
भाषा का विकास विषय के विकास के साथ-साथ चलता है। जैसे-जैसे अर्थ या वस्तु का नया निर्माण होता है, शब्द गढ़े जाते हैं, वैसे-वैसे शब्दकोश की वृद्धि होती जाती है। ज्ञान और साधनों के विकास के साथसाथ कोशों के प्रकारों की भी वृद्धि होती जाती है। हिन्दी, राजस्थानी, संस्कृत, प्राकृत आदि सभी भाषाओं में कोशों का निर्माण हआ है। वैदिक विद्वानों ने उपनिषद् वाक्य महाकोश, प्राचीन भारतीय संस्कृति कोश, ब्राह्मणोद्धार कोश, उपनिषद् उद्धारकोश आदि कोशों का तथा बौद्ध विद्वानों ने बुद्धिस्ट एनसाइक्लोपीडिया का निर्माण किया। जैन विद्वानों ने भी इस दिशा में अपनी लेखनी उठाई है। अब तक अनेक कोश हमारे सामने आ चके हैं। कुछेक कोशों का विवरण इस प्रकार है१. पाइयलच्छीनाममाला
__ यह कवि धनपाल की लघु कोशकृति है। इसकी २७९ गाथाओं में लगभग एक हजार प्राकृत शब्द हैं। उनमें तत्सम, तदभव और देशी शब्द भी हैं। इसका रचना काल वि० सं० १०२९ है। लेखक ने धारानगरी में रहकर अपनी बहिन सुन्दरी के लिए इस ग्रन्थ का निर्माण किया। लेखक का अभिप्राय है कि यह ग्रन्थ प्राकृत कवियों के कविता-प्रणयन में सहयोगी बनेगा। यह प्राकृत भाषा का पहला कोश है । २. देशीनाममाला - इसका अपर नाम है-'रत्नावली'। यह कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र की प्रसिद्ध कृति है। इसमें लगभग छह हजार शब्द ७८३ गाथाओं में संदब्ध हैं। सभी गाथाएं शब्द-प्रयोग की माध्यम हैं। इसकी संयोजना अपने आप में अपूर्व है। ३. पाइयसद्दमहण्णओ
इसके प्रणेता हैं --हरगोविन्ददास सेठ, जिन्होंने २५० से भी अधिक ग्रन्थों से लगभग ७५ हजार शब्द संगृहीत किए हैं। हजार पृष्ठों का यह कोश ससन्दर्भ शब्दों का अर्थ प्रस्तुत करता है। अर्थ की दृष्टि से यह कोश अत्यन्त उपयोगी है। प्राकृत जगत् में यह अत्यधिक प्रचलित है। इसका पहला संस्करण सन् १९२८ में तथा दूसरा संस्करण सन् १९६१ में प्रकाशित हुआ है।
४. सचित्र अर्धमागधी कोश
श्री रतनचन्दजी महाराज ने ४९ ग्रन्थों के आधार पर इसका प्रणयन किया। इसमें प्राकृत शब्दों के हिन्दी अर्थ के साथ गुजराती और अंग्रेजी के अर्थ भी उपलब्ध हैं। संग्रहीत शब्दों की संख्या पचास हजार है। इसका प्रथम संस्करण सन् १९२३ में हआ था। अभी-अभी यह सुन्दर साजसज्जा के साथ पांच भागों में
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