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अवधिज्ञान
स्पर्धक अवधि
परमोही अंतोमुहत्तं भवति । ततो परं केवलनाणं योजनपृथक्त्व, योजनशत, योजनशतपृथक्त्व, योजनसमुप्पज्जति ।
(आवच११४०) सहस्र, योजनसहस्रपृथक्त्व, योजनलक्ष, योजनलक्षपृथक्त्व परम अवधिज्ञान का कालमान है --अन्तर्महत । योजनकोटि, योजनकोटिपृथक्त्व, योजनकोटाकोटि, उसके पश्चात् केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है ।
योजनकोटाकोटिपृथक्त्व, अथवा उत्कृष्टतः संपूर्ण लोक को १०.हीयमान अवधिज्ञान
देखकर गिर जाये-नष्ट हो जाए, वह प्रतिपाति
अवधिज्ञान है। हायमाणयं ओहिनाणं अप्पसत्थेहिं अज्झवसाणट्ठाणेहि
यदुत्पन्नं सत् क्षयोपशमानुरूपं कियत्कालं स्थित्वा वट्टमाणस्स वट्टमाणचरित्तस्स, संकिलिस्समाणस्स
प्रदीप इव सामस्त्येन विध्वंसमुपयाति तत्प्रतिपातीत्यर्थः । संकिलिस्समाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओही परिहायइ ।
(नन्दीमवृ प ८२) (नन्दी १८)
जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने पर क्षयोपशम के अनुरूप अप्रशस्त अध्यवसायों में वर्तमान, अप्रशस्त
कुछ काल तक अवस्थित रहकर बाद में प्रदीप की तरह आचरणवाले तथा उत्तरोत्तर संक्लेश को प्राप्त और
पूर्ण रूप से बुझ जाता है, वह प्रतिपाति अवधिज्ञान है। संक्लिश्यमान आचरणवाले व्यक्ति का अवधिज्ञान चारों ओर से क्षीण होता है।
१२. अप्रतिपाति अवधिज्ञान उदयसमयसमनन्तरमेव हीयमानं दग्धेन्धनप्रायःधम- अपडिवाइ ओहिनाणं-जेणं अलोगस्स एगमवि ध्वजाचिर्वातवदित्यर्थः। (नन्दीहावृ पृ २३) आगासपएसं पासेज्जा, तेण परं अपडिवाइ ओहिनाणं । उत्पत्तिकाल के साथ ही जो बुझती हुई अग्नि
(नन्दी २१) ज्वाला की तरह क्षीण होने लगता है, वह हीयमान जो अवधिज्ञान अलोकाकाश के एक प्रदेश अथवा अवधिज्ञान है।
उससे आगे देखने की क्षमता रखता हो, वह अप्रतिपाति ११. प्रतिपाति अवधिज्ञान
अवधिज्ञान है।
न प्रतिपाति-यत् न केवलज्ञानादर्वाक् भ्रंशमुपयाति पडिवाइ ओहिनाणं-जण्णं जहण्णेणं अंगुलस्स
तदप्रतिपातीत्यर्थः।
(नन्दीमत् प ८२) असंखेज्जयभागं वा संखेज्जयभागं वा, वालग्गं वा वालग्ग
जो ज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व नष्ट नहीं पुहत्तं वा, लिक्खं वा लिक्खपुहत्तं वा, जूयं वा जूयपुहत्तं
होता, वह अप्रतिपाति अवधिज्ञान है। वा, जवं वा जवपुहत्तं वा, अंगुलं वा अंगुलपुहत्तं वा,
१३. स्पर्धक अवधि : परिभाषा और स्वरूप पायं वा पायपुहत्तं वा, विहत्थि वा विहत्थिपुहत्तं वा, रयणि वा रयणिपुहत्तं वा, कूच्छि वा कृच्छिपृहत्तं वा, जालकडगस्स अंतो दीवको पलीविओ। तओ तस्स धणुं वा धणपुहत्तं वा, गाउयं वा गाउयपूहत्तं वा, जोयणं पईवस्स लेसातो तहिं जालंतरेहिं निग्गच्छति । निग्गताओ वा जोयणपुहत्तं वा, जोयणसयं वा जोयणसयपुहत्तं वा, य समाणीओ बाहिं अवट्टियाणि रूविद्दव्वाइं उज्जोवेति । जोयणसहस्सं वा जोयणसहस्सपुहत्तं वा, जोयणलक्खं वा एवं जीवस्सवि जेसु आगासपदेसेसु ओहिण्णाणावरणिज्जाणं जोयणलक्खपुहत्तं वा, जोयणकोडिं वा जोयणकोडिपुहत्तं कम्माणं खओवसगे भवति, तेसु ओहिण्णाणं समुप्पज्जति । वा, जोयण कोडाकोडि वा जोयणकोडाकोडिपुहत्तं वा, जेसु पुण आगासपदेसेसु ओहिण्णाणावरणक्खओवसमो उक्कोसेणं लोगं वा-पासित्ताणं पडिवएज्जा।
णत्थि, तेसु ओहिण्णाणं ण उप्पज्जति । जेसि जीवाणं
(नन्दी २०) केसुवि आगासपदेसेसु ओही उप्पण्णो, केसुवि न उप्पन्नो, जो अवधिज्ञान जघन्यत: अंगुल का असंख्यातवां तत्थ जेसु उप्पण्णो ते फड्डगा भण्णंति । (आवचू १ पृ ६१) भाग, संख्यातवां भाग, बालाग्र, बालाग्रपृथक्त्व, लिक्षा, एक दीपक जल रहा है। उस पर जालीदार ढक्कन लिक्षापृथक्त्व, यूका, यूकापृथक्त्व, यव, यवपृथक्त्व, लगा हुआ है। उससे प्रकाश की रश्मियां छिद्रों से बाहर अंगुल, अंगुलपृथक्त्व, पाद, पादपृथक्त्व, वितस्ति, वित- आती हैं। वे रश्मियां बाहर आकर बाह्य रूपी पदार्थों स्तिपृथक्त्व, रत्नि, रत्निपृथक्त्व, कुक्षि, कुक्षिपृथक्त्व, को प्रकाशित करती हैं । इसी प्रकार जीव के भी जिन धनुष्य, धनुष्यपृथक्त्व, गव्यूत, गव्यूतपृथक्त्व, योजन, आकाशप्रदेशों (आत्मप्रदेशों) में अवधिज्ञानावरणीय कर्म
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