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( १३६१ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
भत्तपरिता
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निजामरण गुरुणा, इच्छामि भवन्नवं तरिउं कारुणामयनीसं दसुंदरो सो वि से गुरू भगइ । आलोयणवयखामण-पुरस्सरं तं पवजेसु ॥ १६ ॥ इच्छामुत्ति भणित्ता, भत्तीबहुमाणसुद्ध संप्पो । गुरु विगयावा, पाए अभिवंदि विहिणा ||२०|| सलं उद्धरणो, सब्बैगुण्यतिव्वसद्धाश्रो । जं कुणइ सुद्धिहेउं, सो तेयाऽऽराहो होइ ॥ २१ ॥ अह सो आलोणदो-सबज्जियं उज्जुयं जहायरियं । बालु व बालकाला - उ देह आलोचणं सम्मं ||२२|| उवि पायच्छिते, गणिया गणि संपयासमग्गेण । सम्म पनि तयं, अपावभाव पुणो भगः || २३॥ दारुण दुहजलयर भी - मभवजलहितारणसमत्थे | निफन्नायपोए, महत्वए अम्हश्र विवसु ॥ २४ ॥ जइ वि स खंडियचंडो, अक्खडमहन्वओ जई जइ वि । पत्रअन तुद्वावण - मुट्ठावणमरिहर तहावि ॥ २५ ॥ पहुणो मुकाऽखतिं भिच्चा पञ्चप्पियंति जह विहिणा । जावज्जीव पड़ना - गतिं गुरुणो तहा सो वि ॥ २६ ॥ जो साइयारचरणो, आउट्टिय दंड खंडियवओ वा । तह तस्सव सम्ममुत्र- द्वियस्स उट्ठावणा भगियौ ॥ २७॥ ततो तस्स महव्व य-पव्ययभारुन्न मंतसीसस्स । सीसस्स समारोह, सुगुरू वि महत्वए विहिणा ||२८|| अह हुआ देसवर, सम्पत्तरओ रओ व जिणत्रयणे । तस्स वियाई, श्रारोविजंति सुद्धाई ॥ २६ ॥ अनियाणोदारमण, हरिसवसविसप्पकंचुइयराइ | पूएइ गुरुं संघ, साहम्पियमाइ भत्तीए ॥ ३० ॥ नियदव्यपईव जिगि- दभवणजियविववरपइट्ठासु । वियर सत्यपुत्थय - सुतित्यतित्थयरपुत्रासु || ३१ ॥ जड़ से वि सव्ववर-कयारा विसुद्धमणकाओ । छिन्नसणारा, विसयविसाओ विरतो अ ||३२|| संथाएँ पव्वज्जं, पडिवज्जड़ सो वि नियमनिरख । सम्बविरईपहाणं, सामाइयचरितमारुहइ || ३३ || अह सो सामाइयधरो, पडिवन्नमन्बो जो साहू | देसविरओ अ चरिमं, पचक्खामि त्तिनिच्छइओ ||३४|| गुरुगुणगुरुणो गुरुणो, पयपंकयनमियमत्थओ भगइ | भयवं भत्तपरिन्नं, तुम्हाणुमयं पवजामि ।। ३५ ।। श्रागणा इवेमं तस्सेव य अप्पणो अगणिवस हो । दिव्त्रेण निमित्तेणं, पडिलेहइ इहरहा दोसा || ३६ ॥ तत्तो भवचरिमं सो, पञ्चकखाइ तितित्रिमाहारं । उकोसियाणिदव्वाणि तस्स सव्वाणि दंसिजा ||३७|| पासितु ताणि कोई, तीरं पतस्तिमेहि किं मज्झ ।
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१८ ॥
जत परिक्षा
३८ ॥
देसं च कोइ च्या. संवेगगश्रो विचिते ॥ किं चत्तं नोवसुतं मे, परिणामासुई सुई । दिट्ठसारो सुहं काय, चोश्रण से विसीययो ॥ ३६ ॥ उदरमल सोहट्ठा, समाहिपाणं मणुनं मे ।
सो वि मरं पञ्जयत्रो, मंदं च विरेयणं खमओ ॥ ४० ॥ एलतयनागकेसर - तमालपत्तं ससकरं दुद्धं । पाऊण कढिय सीयल, समाहिपाणं तत्र पच्छा ॥। ४१ ।। महुरविरेण मेसो, कायन्त्रा फोफलाइदव्येहिं । निव्वावि अग्गी, समाहिमेसो सुहं लहइ ॥ ४२ ॥ जावज्जीवं तिवि, आहारं बोसिरइ इदं खवगो । निजवगो आयरिश्रो. संघस्स निवेयणं कुणइ ॥ ४३ ॥ श्रीराहणपच्चइयं, खमगस्स य निरुवसग्गपच्चइयं । तो उसग्यो संघे - होइ सन्धेय कायन्वो ॥ ४४ ॥ पच्चक्खाविति तम्रो, तं ते खवगं चउव्विहाऽऽहारं । संघसमुदायम, चिइवंदणपुब्वयं विहिणा ।। ४५ ।। हवा समाहिहेडं, सागारं चयइ तिविद्दमाहारं । तो पाणियं पि पच्छा, वोसिरियन्वं जहाकालं ॥४६॥ तो सो नमंतसिरसं घडतकरकमलसेहरो विहिणा । खामेइ सव्वसंघ, संवेगं संजयेमाणो ॥ ४७ ॥ -आयरिऍ उवज्झाए, सीसे साइम्मिए कुलगणे य । जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥ ४८ ॥ सन् वराहपए, खामेमि अहं खमेर मे भयवं । मखामि सुद्धो, गुणसंघायस्स संघस्स ॥ ४६ ॥ इस वंदणखामण गरिहणेहिं भवसयसमज्जियं कम्पं । उवणेइ खणेण खयं, मिगावईराइपत्ति ॥ ५० ॥ अह तस्स महव्वयसु-द्वियस्स जिणत्रयणभावियमइस्स । पञ्चकखायाहार-स्स तिव्व संवेगसुहयस्स ॥ ५१ ॥
राहणलाभाश्र, कयत्यमध्यायं मुणं तस्स | कलुसकलतरणिलहिं, अणुसट्ठि देइ गणिवसभो ॥५२॥ कुग्गहपरूढमूलं, मूला उच्छिद वच्छ ! मिच्छत्तं । भावेसु परमतत्तं, संमत्तं सुत्तनीईए ॥ ५३ ॥ भत्तिं च कुसु तिब्वं, गुणागुराएण वीयरायाखं । तह पंचनमुकारे, पत्रयणसारे रई कुणसु || ५४ || सुविहिययिनिज्झाए, सज्काए उज्जुओ सया होसु । निचं पंचमहव्यय - रक्खं कुछ आयपच्चक्खं ।। ५५ ।। उज्सु नियाणसलं, मोहमदल्लं सुकम्म निस्तलं । दमसु मुदिसंदो - हनिंदिए इंदियमईदे ॥ ५६ ।। निव्वाणसुहावाए, विइन्ननिरयाइदारुणावाए । इसु कसायपिसाए, विसयतिसाए सयसहाए ॥ ५७ ॥ काले अपहू संते, सामने सावसेमिए इसिंह |
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