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पुहवीचंद
(१.६७) अभिधानराजेन्द्रः।
पुहवीचंद राहगमो उचिय-ढाणासीणो भणा एवं ॥ २४ ॥ घुट्ठी य अमोघामो, सयले नियमंडले तेण ॥४७॥ पह भोगाविसमिव मुह-महुरा परिणामदारुणविवागा। पार्य अत्री विजणी, विहिमो जिणसासणम्मि भाभत्तो। सिषनयरमहागोउर-निविद्यकवाडोषमा भोगा ॥ २५ ॥ सर्थ व बयणमेयं, जह राया तह पया हो ॥४८॥ भोगा सुतिक्खबहुतु-क्खलक्ष हुयवहिंधणसमाणा। काया वि सभाऽऽसीणो.स वित्तिणा पणिमो जहा देव। धम्मामउम्मूलक्षण-समीरलहरीसमा भोगा ॥ २६ ॥ तुहसणं समीक्षा देसंतरषाणिभो सुधणो ॥४६॥
मुंबसुइय निवभणिप. सो मुको वित्तिणा तमो सुधणो । अंभुत्तमणाइभवे, जीवेणाहारभूसणाईयं ।
नमिऊण पुहाना, उचियाणम्मि प्रासीणो॥५०॥ एगस्थ पुंजियं तं, मारेर धरधरं धरणि ॥ २७ ॥
रमा भणियं भी सि-ट्टि!कास कत्तो समागमोऽसि । पीया जा सुमणो-रमा पाणार पाणिणो पुटिव ।
भमिरेण माहि करथ बि, किं विटुं अच्छरिज्जब? ॥ १ ॥ विजंति ताहन तत्ति-या सलिलाइ जलहीसु ॥ २८॥ सिट्ठी वि माह सामिय!,गयपुरनगराउ भागमोऽम्हिार। पुष्पाणि फलाणि दला-णि जाणि भुत्ताणि पाणिणा पुखि ।। भुवणजणविम्हयकर,अच्छरियं पुण इमं दिटुं ॥ ५२ ॥ विजंति न तिहुयणतरु-गणेसु किर वट्टमाणेसु ॥ २६॥
तथाहिअधि य
मासिह गयपुरनयरे, बहुरयणो रयण संचओ सिट्ठी । भुत्तूणं सुसुंदरे सुरबहूसंदोहदेहाइए,
भजना सुमंगला से, पुत्तो गुणसायरो नाम ॥ ५३ ॥ भोए सायरपल्लमाणमणहे देवत्तणे जं नरो।
अब रयणसंचएणं,पसरियनवजुब्वणस्स तस्स कए। रज्जंतिस्थिकलेवरेसु असुईपुन्नेसु रिट्ठीयमा,
अट्ठण्ड नयरसिट्ठी-ण अट्ट धूयाउ वरियानो ॥ ५४ ॥ मन्ने तित्तिकरा जियाण न चिर्र भुत्ता वि भोगा तो॥३०॥
अमदिणे पोलोयण-ट्ठिएण गुणसायरेण रायपहे। ता पडिबुज्झह बुज्झह, मा भोगपरब्यसं मणं काउं।
भिक्खत्थं पुरमझे, पविसंतो मुणिवरो दिट्ठो ॥ ५५॥ दुत्तरप्रणोरभवजल-निहिम्मि परिभमह दुक्खता ॥ ३१॥
कत्थ वि परिसरूवं, पुरा वि मे पिच्छियं ति चितंतो। इय सोउ कुमरवयणं, ताउ पबुद्धाउ निपाधूयाओ।
परिपालियचरणभरं, पुब्बभवं संभरह सो उ ॥५६॥
अहनिबंधेण तओ, वयगणकए स पुच्छप पिउणो । घिसयविरत्तमणाओ, कयंजलीओ भणंति इमं ॥ ३२ ॥
रुयमाणी दीणमणा, से जणणी भणह तो एयं ॥ ५७ ॥ सामिय! अवितहमेयं जं तुमए जंपियं परं कहसु।
जर वि तुह वच्छ! चित्तं खणं पिन रदं गिहे कुणासह वि। को परिहरणोवाओ, विसया कहे तो कुमरो ॥ ३३॥
नवपरिणीयनियमुहदं सणेण रंजेसु णे हिययं ॥ ५८ ॥ सुहगुरुगिराह अकलं-कचरणासेवणं तो जाओ।
तयणव्ययगहणविसए, तह उतरायं न कि पि काहामो । पभणंति सामि ! अम्हे. दिक्खार लहुवि सज्जेसु ॥ ३४॥ तुह घरिणीसहेणं, वयं कयत्था उ अज जायाश्रो।
इय जणणीए चयणं, तह त्ति पडिवज्जए सो वि ॥५६॥
घेवाहियसिट्रीणं, कहावियं रयणसंचरण में। संप पुण गिहवासे, न खणं पि र लहेमु त्ति ॥ ३५ ॥
परिणयणाणंतरमेव मह सुओ गिरिहही दिक्खं ॥ ६॥ तुट्ठो भणा कुमारो, जुत्तमिणं तुम्ह य विवेयाणं । किं तु समाहिजुयाश्रो, गुरुबागमणं पडिक्लेह ॥ ३६॥
तं सोउं ते वाउल-हियया मंतंति किं पिता धूया । समए वयमवि एवं, कहामो ताउ जं पवज्जति ।
जंति किमिह ताया!, कन्ना दिज्जंति वारदुर्ग ॥ ६१ ॥ परियणमुहाउ एयं, हरिसीहनिवेण विनायं ॥ ३७॥
सो च्चिय भत्ता जं सो, करिस्सप तं वयं पिकाहामो। तो तेण चिंतियमिणं, वसीको नेव एस महिलाहिं।
तेणं च अपरिणीया, न करिस्सामो वरं अवरं ॥ ६२॥ नवरं इमिणा चरणु ज्जुयाउ एयाउ विहियाभो ॥ ३८॥
इय सोउ पुत्तिषयणं, ते सव्वे सिटुिणो पहिट्ठमणा । तो ससिणे पभणिय, इमं निउंजेमि रजवरम्मि ।
गुणसायरेण कारं-ति पाणिगहण नियसुयाणं ॥ ६३॥ अंसव्वाउलयाए, वीसारह धम्मवत्तं पि ॥ ३६॥
गिज्जंतबहुलधबले, वीवाहमहे पयट्टमाणम्मि । इप निच्छिय तेणुत्तो, कुमारो बहुरजगहणविसम्मि । कयसयलजणक्खेबे, पुरो नझिम बटुंते ॥ ६४॥ पडिकलिउमचयंतो, पिउवयणं सो सुदक्खिनो ॥४॥ गुणसायरो वि नासा-निहियको रुद्धइंदियषियारो। चिंता अहो विरुद्धं रजग्गहणं तज्जयमईणं ।
चिंतह एगग्गमणो, समणो होई सुए श्रदयं ॥ ६५ ॥ सागरगमणमणाणं, हिमवंताभिमुहगमणं व ॥४१॥ एवं तवं करिस्सं, एवं इं गुरुण विणयभरं । निबंधो पुण पिउणो, लक्खिज्जइ गुरुतरो इहत्थम्मि । इय संजमे जइस्सं, इय झारस्सं सुहज्माणं ॥६६॥ दुप्पडियारा गुरुणो, न लंधियब्बा सयहि ॥४२॥
दय चितंतो निहुयं, सुमरंतो पुब्वभवसुयरहस्सं । संभाविज्जर पच्छा, वि पत्थणा परिसी किर इमस्स । उल्लसियमियज्झाणो, संपत्तो केवलं नाणं ॥ ६७ ॥ धम्मायरियागमणं, पडिक्खियम्वं मए वि धुवं ॥४३॥ ताश्री वि नवबहुभो, तह निच्चललोयणं तमेगग्गं । ता परमपीइपउणं, पिउणो वयणं करोमि अहमिरिह। पेहति पहिट्ठाओ, लज्जामुरलिंतनयणाश्रो ॥ ६॥ इय चितिय पडिवजा कुमरो निवसासणं सिरसा ॥४४॥ चिंतंति अहो धनो,उवसमलच्छीइ रंजियो धणियं ॥ तो पुरविचंदकुमरं, असेससामंतमंतिसंजुत्तो।
अम्हासु कई रज्जह सज्जो सावज्जभरियासु ॥ ६६॥ अभिसिंचिय रज्जभरे, कयकिच्चो नरवाई जात्रो ॥ ४५ ॥ षयमवि सुपुनपुना, जं लो एस सुगुणधणअहो । मरराया पुण तीए रायसिरीए न रंजिनो कि पि ।
सिवनयरसत्यवाहो, भवरनविलंघणसमत्थो ॥ ७॥ कुणातहा वि पविति, उचियं जणयाणुरोहेणं ॥४६॥ एयाणु मग्गलग्गा, सम्मं धम्म सुनिम्मलं चरिउं । रजं वसणविरहियं, विहियं मुक्काउ सयलगुत्तीनी ।
काहामो भूरिभवु-भवाण दुक्खाण वुच्छेयं ।। ७१॥
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