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३ - संसार भावना के द्वारा शालिभद्र ने संयम ग्रहण किया । ४ - एकत्व भावना के द्वारा नमिराजर्षि ने संयम ग्रहण किया । ५--अन्यत्व भावना के मृधा पुत्र ने संयम ग्रहण किया । ६ - अशुचि भावना से सनतकुमार चक्रवर्ती ने संयम ग्रहण किया । ७ - आस्रव भावना से इलायमी पुत्र ने अपना कल्याण किया । ८- संवर भावना से हरिकेशी ने जीवन सुधारा ।
६ - निर्जरा भावना से अजुल माली ने अपना कार्य सिद्ध किया । १० - लोक भावना से शिवराजर्षि ने अपना जीवन कल्याण किया ।
११ - जोधिदुर्लभ भावना से ऋषभदेव के अठानवें पुत्रों ने कल्याण किया । १२ – धर्म भावना से धर्मघोष आचार्य के शिष्य धर्मरूचि अणगार सर्वार्थ
सिद्ध में उत्पन्न हुए ।
णो इंदियग्गेज्म अमुत्तभावा । अमुत्त भावा वि य होइ णिच्चो ॥
- उत्त० अ १४ । गा १६ पूर्वार्ध
जीव व आत्मा निराकार है-अरूपी है अतः इन्द्रियों द्वारा इसका बोध नहीं हो सकता है, न इसमें रंग है, न गन्ध है, न स्वाद है और न स्पर्श है और निराकार होने से ही इसका ( जीव का ) अविनाशी होना निश्चित है ।
गाणं च दसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उवओगो य एवं जीवरस लक्खणं ॥
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ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग — ये जीव के विशिष्ट लक्षण है ।
- उत्त० अ २८ । गा ११
धम्मो मंगलमुक्किट्ठ ।
— दशवे० अ १ । गा १ पूर्वार्ध
धर्म सर्व प्रकार के मांगलिक कार्यों में श्रेष्ठ है ।
मांगलिक कार्य- (१) शुद्ध मांगलिक, (२) अमांगलिक, (३) चमत्कार मांगलिक, (४) क्षय मांगलिक व (५) सदा मांगलिक ।
धर्म के तीन भेद या रूप कहे गये हैं-अहिंसा, संयम तथा तप ।
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