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लेश्या - कोश
प्राणी का सद्प्रयत्न अगर श्रेष्ठ नहीं माना जाये तो उसका विकास कैसे हो सकता है । इसका विवेचन श्री चोरड़ियाजी ने अत्यन्त गम्भीर एवं प्राञ्जल भाषा में किया है । साम्प्रदायिक मतभेदों से उपर रहकर भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों का उल्लेख भी सरलता के साथ किया गया है । अनेकों आगमीय उदाहरणों व मूल पाठों का उल्लेख भी गम्भीर अध्ययन को उजागर करता है । आगमीय पाठों का उद्धरण और अनेक उदाहरणों से पुस्तक काफी रोचक बनी है । पाठक निस्संदेह इससे ज्ञानार्जन करके लाभ उठाएंगे - यह मेरा विश्वास है ।
- मुनि श्री हर्षलालजी
आज जब हम श्रावक समाज का सम्यग् प्रतिलेखन करने बैठते हैं सोचते हैं कि समूचा समाज ही आज केवल भौतिक अर्थ संग्रह के प्रवाह में बढ़ता जा रहा है । आध्यात्मिक चिन्तन-मनन में रुचि रखने वाले तो द्विश्रा संति न संति वा को ही चरितार्थ कर रहे हैं । भौतिक ज्ञान-विज्ञान जो कि अर्थ संग्रह का ही एक माध्यम है । निरन्तर विकास कर रहा है पर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए कहीं कोई उत्साह नजर नहीं आ रहा है । ऐसी स्थिति में श्रीचन्दजी चोरड़िया का मिथ्यात्वी का अध्यात्मिक विकास नामक यह ग्रन्थ उनकी गहरी ज्ञान गरिमा का द्योतक है । जैन दर्शन आत्म-विकास का दर्शन है । हर आत्मा का ह्रास और विकास चाहे वह सम्यक्त्वी हो या मिथ्यात्वी हो अपनी-अपनी क्रिया पर निर्भर है । किसी को कोई क्रिया निष्फल नहीं हो सकती, एक मिध्यादृष्टि जीव जिसे अभी सम्यक्त्व बौद्ध प्राप्त नहीं हुआ है, इस विषय को प्रस्तुत किया है किसी प्रकार विकास करता हुआ आगे बढ़ता है । श्री चोरड़ियाजी ने आगम प्रयास युक्त प्रस्तुत किया है । व्यक्ति के लिए यह ग्रन्थ आवश्यक पठनीय है ।
हर आध्यात्म प्रेमी
- मुनि श्री रिद्धकरणजी
आपने जो मिध्यात्वी की भली करनी निर्जरा के जोर से जिस आत्मा को मोक्ष के नजदीक करती है इस विषय की जो आपने किताब प्रकाशित करके जो freerat की भलीकरणी यानि निर्जरा को आज्ञा बाहर मानते हैं उनका भरम दूर करने की चेष्टा की है इसलिये आपको धन्यवाद देता हूँ । आपने जो सूत्रों का उदाहरण देकर जो खुलासा उस किताब में किया है बहुत ही सुन्दर किया है । आपको आध्यात्मिक सूत्रों की बहुत गहरी जानकारी है, मेरी दृष्टि में मिथ्यात्वी की निर्जराकी करनी जो भगवान की आज्ञा के बाहर होती तो फिर एकेन्द्रि जीव से विकलेन्द्रिय कैसे हो सकता है लेकिन बहुत से भाइयों में यह भरम है कि
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