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लेश्या-कोश पंच संग्रह के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने कहा है
सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतीनां प्रतिपत्तिकालेषु शुभलेश्या त्रयमेव, तदुत्तरकालं तु सर्वा अपि लेश्याः परावर्तन्तेऽपीति ।
-पंच संग्रह भाग १ । सू ३१ । टीका अर्थात् सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति की उपलब्धि के समय लेश्या तीन शुभ होती है। उत्तरवर्तीकाल में छहों लेश्या मिल सकती है। इससे और भी पुष्टता हो जाती है कि सातवीं नारकी में सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय लेश्यायें
आवश्यक सूत्र में भी कहा है-"सम्मत्तस्सय तिसु उवरिमासु पडिवज्जमाणओ होइ, पुव्व पडिवनओ पुण अन्नयरीए उ लेसाए" ॥११॥
सम्यक्त्व को स्वीकार करने वाले को ऊपर की तीन लेश्या होती है परन्तु जिन्होंने सम्यक्त्व पहले प्राप्त कर लिया है उनको बाद में किसी भी लेश्या हो सकती है।
अस्तु ऊपर की अर्थात् अन्तिम की तीन लेश्या नारकी को नहीं होती है क्योंकि सातवीं नारकी में कृष्णलेश्या ही कही गयी है। तथा सौधर्म देवलोक में एक तेजोलेश्या ही कही है। तेजोलेश्या के प्रशस्त परिणाम होने के कारण संगम आदि ने त्रिभुवनपति वर्धमान स्वामी को रौद्र उपसर्ग करने की बात घटित नहीं होती है। तथा कहा है कि कापोत, नील और कृष्ण-ये तीन लेश्या नरक में होती है। आदिरूप नियम भी विरोध को प्राप्त होंगे। जीव समास में कहा है कि देव-नारकी को-द्रव्यलेश्या होती है व भापरावर्तन की अपेक्षा देव-नारकी को छः लेश्या होती है ; ऐसा मानना चाहिए।
प्रश्न का समाधान-शास्त्र का अभिप्राय न जानने के कारण यह बात वास्तधिक रूप से घटित नहीं होती है। लेश्या शब्द की व्याख्या शुभाशुभपरिणाम विशेष है ; उन परिणाम विशेष को उत्पन्न करने वाले कृष्णादिरूप द्रव्य हमेशा जीव के समीप रहते हैं। इन कृष्णादि द्रव्यों से जीव के जो परिणाम विशेष होते हैं। वे ही मुख्य तथा लेश्या शब्द से अभिहित किये जाते हैं । गौणरूप कारण में कार्य का उपचार होता है यह न्याय इस कृष्णादि रूप द्रव्यलेश्या शब्द रूप में विवक्षित है।
अतः सातवीं नारकी में भी भाव परावृत्ति की अपेक्षा छहों लेश्याए होती हैं। वे मिथ्यादृष्टि नारकी तेजो आदि शुभ लेश्या में सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं ।
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