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लेश्या-कोश गुणस्थान और लेश्या तेजः पद्मयोराद्यानि सप्तः शुक्लायांत्रयोदशसयोगातानि ।
-पंच संग्रह संस्कृत ( दि० ) परिच्छेद ४ । पृ० १८४ अर्थात् तेजो व पद्मलेश्या में आदि के सात गुणस्थान है और शुक्ललेश्या में अंत का एक छोड़कर तेरह गुणस्थान है। पढमाइचउ छलेसा ।
-पंच सं० ( दि. ) आधि २ । गा १८७ । पूर्वार्ध अर्थात् प्रथम गुणस्थान से चौथे गुणस्थान तक छहों लेश्याए होती है । १६-२४ लेश्या और ब्रह्मचर्य ०१ बतीस उपमा से उपमित ब्रह्मचर्य
जंमि य भग्गंमि होइ सहसा सव्वं संभग्ग-मथिय-चुण्णियकुसल्लिय-पल्लट्ट-पडिय-खंडिय-परिसडिय-विणासियं विणयसीलतवनियमगुणसमूहं, तं बंभं भंगवंतं
गहगण-नक्खत्त-तारगाणं वा जहा उडुपती, x x x झाणेसु य परमसुक्कझाणं, णाणेसु य परमकेवलंतु सिद्ध,लेसासु य परमसुक्कलेस्सा xxx एवमणेगा गुणा अहीणा भवंति एक्कंमि बंभचेरे।
-पण्हा० अ६ । सू २ ब्रह्मचर्य को ३२ उपमा से उपमित किया गया है। उसमें एक उषमा है लेश्याओं में सबसे परम शुक्ललेश्या श्रेष्ठ है। उसी प्रकार सब तपों में ब्रह्मचर्य सबसे श्रेष्ठ तप है। "लेश्या शुक्ल सिद्धिपद संबल"
-शीब महिमा यद्यपि केवली के ज्ञानात्मक भाव मन नहीं होता किन्तु योगरूप मानसिक प्रवृत्ति होती है। भगवती सूत्र के छबीसवें शतक में मनोयोग से वेदनीय कर्म का तेरहवें गुणस्थान में भी बंध होता है अतः केवली के ज्ञानात्मक भाव मन नहीं होता परन्तु योगरूप मानसिक प्रवृत्ति होती है। केवली के शुक्ललेश्या में शुक्लध्यान से होनेवाला वेदनीय कर्म बंधन रूक सकता है।
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