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लेश्या-कोश
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कत्र स्थाने स्थितास्तान् तान् प्रदेशान् स्वस्वप्रत्यासन्नान् उद्योतयन्ति अवभासयन्ति प्रकाशयन्ति । - जीवा० प्रति ३ । उ २ । सू १७७-१७६ । टीका
मनुष्य क्षेत्र के बाहर जो चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र - तारा हैं वे ज्योतिषी देव ऊध्वोत्पन्न हैं यावत् दिव्य भोगोपभोगों को भोगते हुए विचरते है यावत् शुभलेश्या, गीतलेश्या, मन्दलेश्या, मन्दातपलेश्या तथा चित्रान्तरलेश्या वाले हैं । वे शीर्ष स्थान में स्थित रहते हैं तथा उनकी लेश्याएँ परस्पर में अवगाहित होकर मनुष्य क्षेत्र के बाहर के प्रदेश को सर्वतः चारों तरफ से अवभासित, उद्योतित, आतप्त तथा प्रभासित करती है ।
लेश्या विशेषणों सहित ज्योतिषी देवों के सम्बन्ध में ऐसे पाठ अनेक स्थलों पर मिलते हैं । हमने उनकी लेश्याओं की भिन्नता तथा विशेषताओं को दिखाने के लिए उनमें से एक पाठ ग्रहण किया है ।
टीकाकार के अनुसार चन्द्रमा की लेश्या को शुभलेश्या कहा गया है । टीकाकार ने अन्यत्र 'सुहलेस्सा' का सुखलेश्या अर्थात् सुखदायक लेश्या अर्थ भी किया है । यह शुभलेश्या न अधिक शीतल होती है, न अधिक तप्त । सुख उत्पन्न करने वाली वह परमलेश्या होती है ।
'सीयलेस्सा' का टीकाकार ने कोई अर्थ नहीं किया है ।
सूर्य की लेश्या को मन्द विशेषण दिया जाता है । मन्दलेश्या कहा गया है ।
जो लेश्या मन्द तो है, अति उष्ण स्वभाववाली आतपरूपा नहीं है उसे मन्दातप लेश्या कहा गया है । इस लेश्या में रश्मियों का संघात होता है ।
अतः सूर्य की लेश्या को
चित्रान्तर लेश्या प्रकाशरूपा होती है । चन्द्रमा की लेश्या सूर्यान्तर तथा सूर्य की लेश्या चन्द्रमान्तर होकर जो लेश्या बनती वह चित्रान्तर लेश्या कहलाती है । चित्रालेश्या चन्द्रमा की शीत रश्मि तथा सूर्य की उष्ण रश्मि के मिश्रण से बनती है । चन्द्र तथा सूर्य की लेश्याएँ प्रत्येक लाख योजन विस्तृत होती हैं तथा ऋजु (सीधी ) श्रेणी में व्यवस्थित एक दूसरे में पचास हजार योजन परस्पर में अवगाहित होती हैं । वहाँ चन्द्र की प्रभा सूर्य की प्रभा से मिश्रित होती है तथा सूर्य की प्रभा चन्द्र की प्रभा से मिश्रित होती है । इसीलिए उनकी लेश्या परस्पर में अवगाहित होती है ऐसा कहा गया है। और इस प्रकार शीर्ष स्थान
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