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आहारता
सावद्य
लेश्या-कोश
संजोगी ए दोयां भणी रे, निरवद्य बिहु पिछाण रे ।
-झीणीचरचा, ढाल १६ । गा ५, ६
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( तीन अशुभ लेश्याए ) मोहनीय कर्म के उदय से प्रवर्तिस होती है अतः सावद्य है ।
तीन शुभ लेश्याएं नामकर्म के उदय से प्रवृत्त होने के कारण निरवद्य है ।
कृष्ण, नील और कापोतलेश्या में दो भाव उदय और पारिणामिक होते हैं । तेजो, पद्मलेश्या में तीन भाव उदय, क्षयोपशम और पारिणामिक होते हैं । छः द्रव्यों में छओं लेश्या जीव द्रव्य है और नव तत्वों में कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या जीव और आस्रव है तथा तेजो आदि शुभलेश्या जीव, आस्रव और निर्जरा है । कृष्णादि तीन अशुभलेश्या सावद्य है तथा तेजो आदि शुभलेश्या निरवद्य है । सभी लेश्या अशाश्वत है । छओं लेश्या वाले जीव अभव्य भव्य दोनों है ।
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अस्तु कृष्ण, नील और कापोत- इन तीन लेश्याओं को अप्रशस्त माना गया है । तेजो, पद्म और शुक्ल —— ये तीन लेश्याएं प्रशस्त है । अप्रशस्त लेश्याओं को कोई नहीं चाहता पर केवल चाह के आधार पर लेश्या प्रशस्त या अप्रशस्त नहीं बनती। लेश्या ध्यान में अमुक-अमुक रंगों पर चित्त को एकाग्न किया जाता है । रंग भी बुलाने से नहीं आते कल्पना की जा सकती है, पर वह स्थायी नहीं होती । प्रशस्त रंगों या प्रशस्त लेश्या के लिए भाव विशुद्धि आवश्यक है; विशुद्ध भाव तेजस, पद्म और शुक्ललेश्या को आकृष्ट कर लेते हैं । भाव अविशुद्ध है तो आमन्त्रण के बिना कृष्ण, नील और कापोतलेश्या उपस्थित हो जायेगी । ऐसी स्थिति में व्यक्ति स्वयं चिन्तन करे कि उससे क्या बनना है ? और उसके लिए क्या करना है ।
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* ११ द्रव्य लेश्या - अजीव परिणाम भाव है
अजीव परिणामी रा दश बोलां मे, कह्या वर्ण गंध रस फास | द्रव्यलेस्या तिण मांही आबे, ए पुद्गल रूपी विभास रे ॥
—भीणीचरचा, ढाल १३
अजीव परिणाम के दश बोलों में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श बतलाये गये हैं । द्रव्य लेश्या उनके अन्तर्गत है । क्योंकि वह पौद्गलिक होती है ।
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