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लेश्या-कोश
__ जीव छः प्रकार के वर्णवाले होते हैं, यथा-कृष्ण, धम्र, नील, रक्त, हारिद्र तथा शुक्ल । कृष्ण वर्ण वाले जीव को सबसे कम सुख, धम्र वर्ण वाले जीव को उससे अधिक सुख होता है तथा नील वर्ण वाले जीव को मध्यम सुख होता है । रक्त वर्ण वाले जीव का सुख-दुःख सहने योग्य होता है । हारिद्रवर्ण (पीले वर्ण) वाले जीव सुखी होते हैं तथा शुक्लवर्ण वाले परम सुखी होते हैं। इस प्रकार जीवों के छः वर्णों का वर्णन परम प्रमाणित माना जाता है।
___ x x x तत्र यदा तमस आधिक्यं सत्वरजसोन्यूनत्वसमत्वे तदा कृष्णो वर्णः अन्त्ययोवैपरीत्ये धूम्रः। तथा रजस आधिक्ये सच्चतमसोन्यूनत्वसमत्वे नीलवर्णः। अन्त्यर्वपरीच्ये मध्यं मध्यमो बर्णः। तच्च रक्त लोकानां सह्यतरं लोकानां प्रवृत्तिकुशलानाममूढ़ानां साहसिकानां सत्वस्याधिक्ये रजस्तमसोन्यूनत्वसमत्वे हारिद्रः पीतवर्णस्तच्च सुखकरं । अन्त्ययोपरीत्ये शुक्लं तच्चात्यंतसुखकरं x xx ।
--महा० शा० पर्व । अ २८० । श्लो ३३ पर नील० टीका जब तमोगुण की अधिकता, सन्वगुण की न्यूनता और रजोगुण की सम अवस्था हो तब कृष्णवर्ण होता। तमोगुण की अधिकता, रजोगुण की न्यूनता और सत्त्वगण की सम अवस्था होने पर धूम्र वर्ण होता है। रजोगुण की अधिकता, सत्त्वगुण की न्यूनता और तमोगुण की सम अवस्था होने पर नील वर्ण होता है। इसी में जब सत्त्वगुण की सम अवस्था और तमोगुण की न्यूनावस्था हो तो मध्यम वर्ण होता है। उसका रंग लाल होता है। जब सत्त्वगुण की अधिकता, रजोगुण की न्यूनता और तमोगुण की सम अवस्था हो तो हरिद्रा के समान पीतवर्ण होता है। उसी में जब रजोगुण की सम अवस्था और तमोगुण की न्यूनता हो तो शुक्लवर्ण होता है ।
इसके बाद के श्लोक भी तुलनात्मक अध्ययन के लिए पठनीय हैं। जीव किस लेश्या में कितने समय तक रहता है, इसका वर्णन जैन दर्शन में पल्योपम, सागरोपम आदि कालगणना शब्दों में बताया गया है ( देखो ६४ ) तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में जीव कितने 'विसर्ग' तक किस वर्ण में रहता है इसका वर्णन महाभारतकार व्यासदेव ने किया है। उन्होंने विसर्ग को विस्तार से समझाया है, क्योंकि वैदिक परम्परा के लिए यह एक अज्ञात बात थी जब कि जैन साहित्य में पल्योपम, सागरोपम आदि काल-गणना की पद्धति सुप्रसिद्ध है।
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