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( लेश्या के पुद्गल अष्टस्पर्शी होते हैं ) फिर काययोग के पुद्गलों से सूक्षम हैं । और संस्थान के हेतु भूत वर्ण और कान्ति आहारकलब्धि, वैक्रियलब्धि आदि लन्धियां हैं, उनमें एक लब्धि तेजस है। इसके लिए लेश्या शब्द का प्रयोग किया गया है तेजोलेश्या स्वयं में अजीव है। अर्थात् लब्धि योग्य पुद्गल विशेष है। सैद्धान्तिक ग्रन्थों के अध्ययन से यह जाना जाता है कि तेजुलब्धि के साथ लेश्या शब्द का प्रयोग सहेतुक प्रतीत होता है। क्योंकि कहीं-कहीं शल्द में अर्थ का अतिदेश होता है।
भाव धारा ( लेश्या ) के आधार पर हम आभामंडल को बदल सकते है । इससे भावधारा भी बदल जाती है। लेश्या ध्यान चमकते हुए रंगों का ध्यान बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। हमारी भावधारा जैसी होती है, उसी के अनुरूप मानसिक चिन्तन तथा शारीरिक मुद्रायें और इगित तथा अंग संचालन होता है। आधुनिक युग--अर्थात् इस वैज्ञानिक युग में लेश्या व्यान की बहुत उपयोगिता है। आत्मनियंत्रण व आत्मशोधन की लेश्या ध्यान में बहुत सहकारी है।
जीव का चतुर्थ लक्षण है लेश्या । जिसमें लेश्या होती है वह जीव होता है । अर्थात् जिसमें लेश्या होती है, ओरा होती है वह जीव है। जीव की ओरा अनिश्चित होती है, बदलती रहती है। कभी उसकी ओरा अच्छी होती है, और कभी बुरी होती है। कभी उसके रंग अच्छे होते हैं, कभी बुरे हो जाते हैं। और यह इसलिए होता है कि उसको बदलने वाला लेश्यातंत्र, भावतंत्र भीतर विद्यमान है। प्राणी की ओरा का नियामक तत्त्व है लेश्या ।
हमें भावतंत्र का शोधन करना है। मूल करणीय है भाव का शोधन । भाव का शोधन होने से कृष्णादि अशुभ लेश्या नहीं होती है। जब तक ध्यान के द्वारा चेतन का सारा जागरण नहीं होगा, तबतक भावतंत्र की मूर्छा को तोड़ना सम्भव नहीं होगा।
- प्रशस्त लेश्या का सिद्धान्त जागरण की प्रेरणा है। जो आन्तरिक शक्ति का उत्पादक है, वह है लेश्यातन्त्र, भावतन्त्र । भावतन्त्र को जाग्रत रखने का एक मात्र उपाय है सतत् जागरूकता, अप्रमाद । विचार का काम है टकराना । जो भावतन्त्र में चला जाता है, उसके मस्तिष्क में ये प्रश्न नहीं टकराते। भावशुद्धि की साधना करने वाले व्यक्ति का व्यवहार टूटता नहीं, किन्तु वह वास्तविक बन जाता है।
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