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लेश्या-कोश
३६५ ये तीन उद्देशक एक समान गमक वाले हैं शेष आठ उद्देशक एक समान गमक वाले हैं।
जैसा तेजोलेश्या का शतक कहा, वैसा ही पद्मलेश्या का महायुग्म शतक कहना चाहिए। लेकिन कायस्थिति जघन्य एक समय, उत्कृष्ट साधिक अन्तमुहूर्त दस सागरोपम की होती है। इसी प्रकार स्थिति के सम्बन्ध में जानना चाहिए लेकिन स्थिति अन्तम हर्त अधिक न कहना चाहिए। इसी प्रकार पाँच ( कृष्ण यावत् पालेश्या ) शतकों में जैसा कृष्णलेश्या शतक में पाठ कहा वैसा ही पाठ यावत् 'अणं तखुत्तो' तक कहना चाहिए। ___ जैसा औधिक शतक में कहा वैसा ही शुक्ललेश्या के सम्बन्ध में महायग्म शतक कहना चायिए लेकिन कायस्थिति और स्थिति के सम्बन्ध में जैसा कृष्णलेश्या शतक में कहा वैसा यावत् 'अणंतखुत्तो' तक कहना चाहिए। शेष सब औधिक शतक की तरह कहना चाहिए।
कण्हलेस्सभवसिद्धियकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ? एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओहिया कण्हलेस्ससयं ।
एवं नीललेस्सभवसिद्धिए वि सयं ।
एवं जहा ओहियाणि सन्निपंचिंदियाणं सत्त सयाणि भणियाणि, एवं भवसिद्धिएहि वि सत्त सयाणि कायव्वाणि । नवरं सत्तसु वि सएसु सव्वपाणा जाव नो इण? सम। ,
-भग० श ४० । श ६ वे १४ । पृ० ६३३ कृष्णलेशी भवसिद्धिक कृतयुग्म-कृतयुग्म संज्ञी पंचेन्द्रिय के सम्बन्ध में-इसी प्रकार के अभिलापों से जिस प्रकार औधिक कृष्णलेश्या महायुग्म शतक में कहा वैसा-कहना चाहिए।
इसी प्रकार नीललेशी भवसिद्धिक महायुग्म शतक भी कहना चाहिए।
इस प्रकार से संज्ञी पंचेन्द्रियों के सात औधिक शतक कहे गये हैं वैसे ही भवसिद्धिक के सात शतक कहने चाहिए लेकिन सातों शतकों में ही सर्वप्राणी यावत् सर्वसत्त्व पूर्व में अनंत बार उत्पन्न हुए हैं--इस प्रश्न के उत्तर में हैं यह सम्भव नहीं हैं' ऐसा कहना चाहिए।
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