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लेश्या - कोश
जहा भवसिट्टिएहिं चत्तारि सयाई भणियाइ एवं अभवसिद्धिएहि वि चत्तारि सयाणि लेस्सासंजुत्ताणि भाणियव्वाणि । सव्वे पाणा० तब नो इण सम । एवं एयाई बारस एगिंदियमहाजुम्मसयाइ भवंति ।
-भग० श ३५ । श ६ से १२ | पृ० २६-३०
कृष्णलेशी भवसिद्धिक कृतयुग्म कृतयुग्म एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में भी दूसरे उद्देशक में वर्णित कृष्णलेशी शतक की तरह कहना चाहिए ।
इसी प्रकार नीललेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में भी शतक कहना चाहिए | तथा कापोतलेशी भवसिद्धिक एकेन्द्रिय के सम्बन्ध में भी एकादश उद्देशक सहित — ऐसा ही शतक कहना चाहिए। इसी प्रकार भवसिद्धिक शतक भी जानना चाहिए । तथा चारों भवसिद्धिक शतकों में — सर्वप्राणी यावत् पूर्व में अनंत बार उत्पन्न हुए हैं - इस प्रश्न के उत्तर में 'यह सम्भव नहीं' – ऐसा कहना चाहिए ।
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जैसे भवसिद्धिक के चार शतक कहे वैसे ही अभवसिद्धिक के भी चार शतक लेश्यासहित कहने चाहिए। इनमें भी सर्वप्राणी यावत् सर्व सन्व पूर्व में अनंत बार उत्पन्न हुए हैं - इस प्रश्न के उत्तर में 'यह सम्भव नहीं' ऐसा कहना चाहिए ।
*८७२ सलेशी महायुग्म द्वीन्द्रिय जीव
कडजुम्मकडजुम्मबेंद्रिया णं भंते ! ( कइ लेस्साओ पन्नत्ताओ ? ) xxx तिन्नि लेस्साओ । x x x एवं सोलससु वि जुम्मेसु । - भग० स ३६ । श १ । उ १ । सू १-२ । पृ० ३०
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कृतयुग्म कृतयुग्म द्वीन्द्रिय में कृष्ण-नील कापोत ये तीन लेश्याएं होती हैं । इसी प्रकार सोलह महायुग्मों में कहना चाहिए ।
कण्हलेस्सकढजुम्मकडजुम्मवेइ दिया णं भंते! कओ उववज्जंति० १ एवं चैव । कण्हलेस्सेसु वि एक्कारसउदे सग संजुत्तं सयं । नवरं लेस्सा, संचिट्ठा, ठिई जहा एगिंदिय कण्हलेस्साणं ।
एवं नीललेस्सेहि वि सयं ।
एवं कालेस्सेहि वि ।
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