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लेश्या-कोश
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मिच्छादिट्ठीहि वि चत्तारि उद्देसगा कायव्वा जहा भव
सिद्धियाणं ।
एवं कण्हपक्खिएहि वि लेस्सासंजुत्तेहिं चत्तारि उद्देसगा कायव्वा जद्देव भवसिद्धिएहिं ।
सुक्कपक्खिहिं एवं चैव चत्तारि उद्देसगा भाणियव्वा । जाव वालुयष्पभापुढविकाऊलेस्स सुक्कपक्खियखुड् डागकलिओगनेरइया णं भंते ! कओ उववज्जंति० ? तहेव जाव नो परप्पयोगेणं उववज्र्ज्जति । — भग० श ३१ | उ ६ से २८ । पृ० ६१२
कृष्णलेशी भवसिद्धिक क्षुद्रकृतमुग्म नारकी के सम्बन्ध में जैसा औधिक कृष्णलेशी उद्देशक में कहा वैसा ही निरवशेष चारों युग्मों में कहना चाहिए । कृष्णलेशी भवसिद्धिक क्षुद्रकृतयुग्म धूमप्रभा नारकी यावत् कृष्णलेशी भवसिद्धिक कल्योज तमतमाप्रभा नारकी तक नौ पदों में कृष्णलेशी औधिक उद्देशक की तरह कहना चाहिए ।
नीलेशी भवसिद्धिक के चारों युग्म उद्देशक वैसे ही कहने चाहिए जैसे औधिक नीललेशी युग्म उद्देशक कहे गये हैं ।
कापोतलेशी भवसिद्धिक के चारों युग्म उद्देशक वैसे ही कहने चाहिए जैसे औधिक कापोतलेशी युग्म उद्देशक कहे गये हैं ।
जैसे भवसिद्धिक के चार उद्देशक कहे गये हैं, वैसे ही अभवसिद्धिक के चार उद्देशक ( औधिक, कृष्णलेशी, नीललेशी, कापोतलेशी ) जानने चाहिए ।
इसी प्रकार समदृष्टि के लेश्या संयोग से चार उद्देशक जानने चाहिए । लेकिन समदृष्टि के प्रथम द्वितीय उद्देशक में तमतमाप्रभा पृथ्वी में उपपात न कहना चाहिए ।
मिध्यादृष्टि के भी लेश्या संयोग से चार उद्देशक भवसिद्धिक की तरह जानना चाहिए |
इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक के लेश्या संयोग से चार उद्देशक भवसिद्धिक की तरह कहने चाहिए ।
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