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को धर्म लेश्या कहा है ।२ द्रव्य लेश्या पारिणामिक भाव है। भाव लेश्याप्रथम तीन पारिणामिक तथा औदयिक भाव है । अशुभ लेश्या मोहकर्म का उदय निष्पन्न है क्योंकि अशुभ लेश्या से पाप कर्म बंधता है और मोहनीय कर्म के सिवाय और किसी कर्म से पाप कर्म नहीं बंधता है।
शुभ लेश्या-औदायिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशभिक तथा पारिणामिक भाव है। श्रीमज्जयाचार्य ने झीणी चरचा में औपशमिक भाव को बाद देकर चार भाव का कथन किया है । तेरहवें गुणस्थान की शुक्ल-लेश्या शुभ लेश्या कर्मनिर्जरा की अपेक्षा क्षायिक भाव है तथा बारहवें गुणस्थान तक की शुभ लेश्या-कर्म निर्जरा की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव है ।३ श्रीमज्जचाचार्य ने तेरहवें गुणस्थान की शुक्ल लेश्या में तीन भावों का कथन किया है-यथा-१-औदयिक भाव २–क्षायिक भाव तथा ३-पारिणाभिक भाव । शुभ लेश्या नाम कर्म का उदय निष्पन्न भाव है क्योंकि पुण्य कर्म का बंधन होता है। शुभ लेश्या-अंतराय कर्म का क्षायोपशमिक, क्षायिक है, क्योंकि वीर्यलब्धि की प्राप्ति होती है। इसी वीर्यलब्धि से कर्म निर्जरा होती है, वीर्यलब्धि से कर्म का क्षय होता है।
तेरहवें गुणस्यान में द्रव्य शुक्ल लेश्या है परन्तु भाव लेश्या न होने के कारण कथंचिद् लेश्या सम्बन्धी बंध नहीं होता ।४
उत्तराध्ययन के चौतीसवें अध्ययन में लेश्या का विशद विवेचन उपलब्ध है। वहाँ लेश्या के नाम, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति आदि का निरूपण किया गया है ।
लेश्या की एक परिभाषा है-कर्मनिर्भर । लेश्या कर्म का झरना है, कर्म का प्रवाह है। चित्ततन्त्र और लेश्या तन्त्र हमारे क्रिया तन्त्र को प्रभावित करते हैं। क्रिया तन्त्र के तीन अंग है-मन, वचन और शरीर । ज्ञान तन्त्र चित्त तन्त्र तक समाप्त हो जाता है। भाव तन्त्र लेश्या तन्त्र तक समाप्त हो जाता है। अस्तु अध्यवसाय और चित्त ने मन को जो काम सौंपा, उसका वह निर्वाह करता है।
आगम में कहा
___"अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे।" २. उत्तरा० अ ३४ । गा ५ ३. झीणीचरचा ४. भग० श २६ बंधी शतक
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