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लेश्या-कोश ८ से १०-असुरकुमार से स्तनितकुमार
असुरकुमार के सम्बन्ध में सब वर्णन नारकी के समान कहना चाहिए । विशेषता यह है कि असुरकुमार के कर्म, वर्ण और लेश्या नारकी से विपरीत कहना चाहिए अर्थात् पूर्वोपपन्नक ( पूर्वोत्पन्न ) असुरकुमार महाकर्मवाले, अविशुद्धवर्णवाले और अविशुद्धलेश्यावाले हैं, जबकि पश्चादुपपन्नक ( बाद में उत्पन्न होने वाले ), प्रशस्त हैं। उससे अल्पकर्मवाले, विशुद्धवर्णवाले और विशुद्धलेश्यावाले हैं । शेष सब पहले के समान कहना चाहिए ।
इसी प्रकार ( नागकुमारों से लेकर ) यावत् स्तनितकुमारों ( तक ) समझना चाहिए।
'११-पृथ्वीकायादि का
पृथ्वीकायिक जीवों का आहार कर्म, वर्ण और लेश्या नारकी के समान समझना चाहिए।
सब पृथ्वीकायिक जीव समान वेदनावाले हैं। क्योंकि समस्त पृथ्वीकाधिक जीव असंज्ञी है और असंज्ञीभूत वेदना को अनिर्धारित रूप से ( अनिद्रा से ) वेदते हैं । अतः सभी पृथ्वीकायिक जीव समान वेदनावाले हैं।
सभी पृथ्वीकायिक जीव समान क्रियावाले हैं। क्योंकि सभी पृथ्वीकायिक जीव मायी और मिथ्यादृष्टि हैं । अतः नियम से उन्हें पांचों क्रियाए लगती है, यथा-आरम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया । अतः सभी पृथ्वीकायिक जीव समान क्रियावाले हैं।
जैसे नारकी जीवों में समायुष्क और समोपपन्नक आदि चार भंग कहे गये हैं वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों में भी कहने चाहिए।
जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के आहारादि के विषय में निरूपण किया गया है, उसी प्रकार अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तक के जीवों के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए ।
'१२-तिर्यन पंचेन्द्रिय
पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिक जीवों के आहारादि के सम्बन्ध में कथन भी नारकी के समान समझना चाहिए । केवल क्रियाओं में भिन्नता है
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