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लेश्या - कोश
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नामक श्मशान में काया को कुछ नमाकर चार अंगुल के अन्तर से दोनों पैरों को सिकोड़कर एक पुद्गल पर दृष्टि रखते हुए एक रात्रि की महा प्रतिमा ( भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा ) स्वीकार कर ध्यान में खड़े रहे । सोमिल ब्राह्मण द्वारा शिर पर अंगारों को रखे जाने से गजसुकुमाल अनगार के शरीर में महा वेदना उत्पन्न हुई । वह वेदना अत्यन्त दुःखमयी, जाज्वल्यमान और असह्य थी । फिर वे गजसुकुमाल अनगार उस सोमिल ब्राह्मण पर लेश मात्र भी द्वेष नहीं करते हुए समभावपूर्वक महा घोर वेदना को सहन करने लगे ।
तए णं तस्स गयसुकुमालस्स अणगारस्स तं उज्जलं जाव दुरहियासं वेयणं अहियासेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थज्भवसाणेणं तदावरणिज्जाणं कम्माणं खएणं कम्मरय विकिरणकरं अपुव्वकरणं अणुप्पविट्ठस्स अनंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुणे केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे ।
- अंत वर्ग ३ | अ८ । सू २
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अर्थात् घोर वेदना को समभावपूर्वक सहन करते हुए गजसुकुमाल अनगार ने शुभपरिणाम और शुभ अध्यवसायों से तथा तदावरणीय कर्मों के नाश से कर्म विनाशक अपूर्वकरण में प्रवेश किया; जिससे उनको अनंत अनुत्तर, निर्व्याघात निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ । मुनि गजसुकुमाल ने उसी रात्रि में सर्व कर्मों का अनंत कर सिद्ध, बुद्ध यावत् मुक्त हुए ।
१३ - श्रमणोपासक नंदमणियार का जीव मिथ्यात्व भाव को प्राप्त होकर अपनी नंदा पुष्करणी में मेढ़क रूप से उत्पन्न हुआ । वहाँ मेढ़क ने बारम्बार बहुत से व्यक्तियों से सुना कि नंदमणियार धन्य है जिसने इस नंदापुष्करणी को निर्मित किया । ईहा अपोह मार्गणा गवेषणा करते हुए उस नंदमणियार के जीव को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ । जैसा कि कहा है
तए णं तस्स ददुरस्स तं अभिक्खणं- अभिक्खणं बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतए मण्णोगए संकप्पे समुपज्जित्था — कहिं मन्ने मए इमेयारूवे सहे निसंतपुब्वे त्ति कट्टु सुभेणं परिणामेणं पसत्थेणं अज्भवसाणेणं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण
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