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यदि व्यक्ति अपने मन को स्वस्थ, शान्त एवं संतुलन रखना चाहता है, अपनी भावनाओं को अनुशासित रखना चाहता है तो उसके लिए लेश्या या रंग का ध्यान का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है ।
यह लेश्या का विज्ञान, रंग का विज्ञान भीतरी वातावरण को वातानुकूलित बनाने का महत्वपूर्ण विज्ञान है । हम इसका मूल्यांकन और प्रयोग करे, इससे रंगों का संतुलन होगा और जीवन के लिए वरदान सिद्ध होगा ।
प्रज्ञापना, जीवाभिगम, उत्तराध्ययन, जम्बूद्वीप प्रज्ञति आदि आगम ग्रन्थों में लेश्या शब्द वर्ण, प्रभा और रंग के अर्थ में जिस स्थान में शुभ रंगों के पुद्गलों की प्रधानता है वहाँ के द्रव्य लेश्यायें, ग्रहण की है । जीवाभिगम में वहाँ बतलाया गया है— अनुत्तर विमान परम शुक्ल वर्ण के हैं और अनुत्तर विमानवासी देवों में एक शुक्ल ( परम शुक्ल लेश्या ) होती है । वाक्य से ऐसा लगता है कि उनकी स्थित द्रव्य लेश्या का हेतु पारिपाश्विक शुद्ध पर्यायावरण है ।
इस आगम
सीता ने एक बार इस सत्य को प्रकट करते हुए श्रीराम से कहा था - " - "सोत कोऊ की तरह जलती रहती है । यह भीतर ही भीतर जलने की वृत्ति उपाधि है । इसे भाव-धारा या लेश्या भी कहा जा सकता है ।"
प्रयुक्त हुआ है । निवासियों में भी स्थित प्रशस्त देवों के विमानों का वर्णन है ।
गोशालक ने क्रूर कर्म किये परन्तु गोशालक की भाव-धारा ( लेश्या ) बदली | अंतिम समय में अपने आपको धिकारा | भाव विशुद्धि ( शुक्ल लेश्या ) उसको बारहवें स्वर्ग में पहुँचा दिया |
अस्तु - प्राचीन आचार्यों ने 'लेश्या' क्या है, इस पर बहुत ऊहापोह किया है, लेकिन वे कोई निश्चित परिभाषा नहीं बना सके । सबसे सरल परिभापा है— लिप्यते - श्लिष्यते आत्मा कर्मणा सहानयेति लेश्या, आत्मा जिसके सहयोग से कर्मों से लिप्त होती है वह लेश्या है । ( देखें '०६२ ख )
एक दूसरी परिभाषा जो प्राचीन आचार्यों में बहुलता से प्रचलित थीवह है
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कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्या शब्दः प्रयुज्यते ॥
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