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तेजोलेश्या में उत्पन्न ज्वाला--दाह को प्रशान्त करने की शक्ति होती है। निक्षेप की हुई तेजोलेश्या का प्रत्याहार भी किया जा सकता है।
तेजोलेश्या जब अपने से लब्धि में अधिक बलशाली पुरष रूप निक्षेप की जाती है तब वह वापस आकर निक्षेप करने वाले के भी ज्वाला-दाह उत्पन्न कर सकती है।
यह तेजोलेश्या जब निक्षेप की जाती है तब तेजस शरीर का समुद्घात करना होता है तथा इस तेजोलेश्या के निर्गमनकाल में तेजस शरीर नामकर्म का परिशात ( क्षय ) होता है। निक्षिप्त की हुई तेजोलेश्या के पुद्गल अचित्त होते हैं ( देखें '२५, '६६ ५, ६६ २८, '६६ २६ )।
कल्पातीत देव ( नौ ग्न वेयक व ५ अनुत्तरौपातिक देव ) के तेजस समुद्घात नहीं होता है अतः वे तेजोलेश्या-तेजोलब्धि होते हुए भी उसका प्रयोग नहीं करते हैं।
और एक प्रकार की तेजो लेश्या का वर्णन मिलता है। उसे टीकाकार सुखासीकाम अर्थात् आत्मिक सुख कहते हैं। देव पुण्य शाली होते हैं तथा अनुपम सुख का अनुभव करते हैं फिर भी पाप से निवृत्त आर्य अनगार को प्रव्रज्या ग्रहण करने में जो आत्मिक सुख का अनुभव होता है-वह देवों के सुख का अतिक्रमण करता है अर्थात उनके सुख से श्रेष्ठ होता है तथा पाप से निवृत्त पांच मास की दीक्षा की पर्यायवाला आर्य श्रमण निग्नन्थ चन्द्र और सूर्य देवों के सुख से भी उत्तम सुख का अनुभव करता है । ( देखे '२५५ )
विषयांकन '६६.१२ तथा 8E.१३ में क्रमशः वैमानिक देवों तथा नारकियों के शरीर का वर्ण तथा उनकी लेश्याओं का वर्णन है जिसका चार्ट भी दिया गया है। इसको देखने से पता चलता है कि रत्न प्रभापृथ्वी के नारकी के शरीर का वर्ण काला अथवा कालावभास तथा परम कृष्ण होता है लेकिन लेश्या कापोत वर्ण वाली ही होती है। इस विषय में और भी अनुसंधान करने की आवश्यकता है।
लेश्या और लब्धि ____ सामर्थ्य विशेष को लब्धि कहते हैं। प्रवचन सारोद्धार में आचार्य नेमिचन्द्र ने अट्ठावीस लब्धियों का उल्लेख किया है। हमने यहाँ तेजोलेश्या लब्धि और शीतलेश्या लब्धि को ग्रहण किया है।
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