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________________ लेश्या-कोश १७९ परमं असुरकुमारा० एवं चेव, एवं जाव थणियकुमारावासं, जोइसियावासं एवं वेमाणिया वासं जाव विहरइ । -भग० श १४ । उ १ सू २, ३। पृ० ६६५ भावितात्मा अणगार ( साधु ) जिसने चरम देवावास का उल्लंघन किया हो तथा अभी तक परम अर्थात् अगले देवावास को प्राप्त नहीं हुआ हो वह साधु यदि इस बीच में मृत्यु को प्राप्त हो तो उसकी कहाँ गति होगी तथा वह कहाँ उत्पन्न होगा? टीकाकार प्रश्न को समझाते हुए कहते हैं-उत्तरोत्तर प्रशस्त अध्यवसाय स्थान को प्राप्त होनेवाला अणगार जो चरम--सौधर्मादि देवलोक के इस तरफ वर्तमान देवावास की स्थित आदि बंधने योग्य अध्यवसाय स्थान को पार कर गया हो तथा परम-ऊपर स्थिति सनत्कुमारादि देवलोक की स्थिति आदि बंधने योग्य अध्यवसाय को प्राप्त नहीं हुआ हो उस अवसर में यदि मरण को प्राप्त हो तो उसकी कहाँ गति होगी तथा वह कहाँ उत्पन्न होगा ? चरम देवावास तथा परम देवावात के पास जहाँ उस लेश्या वाले देवावास है वहाँ उसकी गति होगी तथा वहाँ उसका उत्पाद होगा। टीकाकार इस उत्तर को समझते हुए कहते हैं-सौधर्मादि देवलोक तथा सनत्कुमारादि देवलोक के पास ईशानादि देवलोक में जिस लेश्या में साधु मरण कौ प्राप्त होता है उस लेश्यावाले देवलोक में उसकी गति तथा उसका उत्पाद होता है। वह साधु वहाँ जाकर यदि अपनी पूर्व की लेश्या की विराधना करता है तो वह कर्मलेश्या से पतित होता है ( टीकाकार यहाँ कर्मलेश्या से भावलेश्या का अर्थ ग्रहण करते हैं ) तथा वहाँ जाकर यदि वह लेश्या की विराधना नहीं करता है तो वह उसी लेश्या का आश्रय करके विहरता है। .५८ किसी एक योनि से स्व/पर योनि में उत्पन्न होने योग्य जीवों में कितनी लेश्या .५८ १ रत्नप्रभापृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में ५८.१.१ पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनि से रत्नप्रभापृथ्वी के नारकी में उत्पन्न होने योग्य जीवों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016038
Book TitleLeshya kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year2001
Total Pages740
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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