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( 32 ) प्राधिकी) कदाचित् चार क्रिया तथा कदाचित् पांच क्रिया वाले भी होते हैं।
इसी प्रकार वैक्रिय शरीर को बनाते हुए ( बांधते हुए ) ( एक वचन व बहुवचन की अपेक्षा ) कदाचित् तीन क्रिया, कदाचित् चार क्रिया तथा कदाचित् पांच क्रिया वाले भी होते हैं ।
इसी प्रकार आहारक शरीर, तैजस व कार्मण शरीर के विषय में जानना चाहिए।
इसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय तक कहना चाहिए।
इसी प्रकार मनोयोग वचनयोग और काययोग के विषय में, जिसके जो हो, उस विषय में कहना चाहिए ।' कहा है
कइविहे णं भंते ! जोए पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा-मणजोए, वइजोए, कायजोए । __ जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे कतिकिरिए। गोयमा! सिए तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए, एवं पुढविकाइए वि । एवं जाव मणुस्से ।
जीवाणं भंते ! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणा कति किरिया। गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरियावि । एवं पुढबिकाइया, एवं जाव मणुस्सा। x x x एवं मणजोगं, वइजोगं, कायजोगं, जस्स जं अस्थि तं भाणियव्वं । एवं एगत्तपहुत्तेणं छन्वीसं दंडगा।
-भग० श १७ । उ २ । सू १३ से १५ योग के तीन प्रकार है-यथा-मनोयोग, वचनयोग और काययोग ।
मन, वचन और काययोग ( एक वचन-बहुबचन की अपेक्षा ) को बनाते हुए जीव के कदाचित् तीन क्रिया ( कायिकी, आधिकारिणिकी और प्राद्वेषिकी) लगती है। जब दूसरे-दूसरे जीवों को परितापादि उत्पन्न करता है तब पारितापनिकी सहित चार क्रिया लगती है। और जब जीव की हिंसा करता है तब प्राणातिपातिकी सहित पांच क्रियाए लगती है।
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