________________
१०६
लेश्या-कोश तेउतियाणं एवं णवरि य उक्कस्स विरहकालो दु। पोग्गलपरियट्टा हु असंखेजा होति णियमेण ॥५५३।।
-गोजी० गा० ५५२-५३
कृष्णादि तीन प्रथम लेश्या का जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहर्त है तथा उत्कृष्ट कुछ अधिक तैतीस सागरोपम है। तेजो आदि तीन शुभलेश्याओं का अन्तरकाल भी इसी प्रकार है परन्तु कुछ विशेषता है। शुभलेश्याओं का उत्कृष्ट अन्तरकाल नियय से असंख्यात पुद्गल परावर्तन है।
२५ तपोलब्धि से प्राप्त तेजोलेश्या २५.१ तपोलब्धि से प्राप्त तेजोलेश्या पौद्गलिक है
(क) तिहिं ठाणेहिं समणे निग्गंथे संखित्तविउलतेउलेम्से भवइ, तं जहा-आयावणयाए, खंतिखमाए, अपाणगेणं तवोकम्मेणं ।
-ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू ३८६ । पृ० ५७६
तीन स्थान-प्रकार से श्रमण निनन्थ को संक्षिप्त-विपुल तेजोलेश्या की प्राप्ति होती है, यथा-(१) आतापन ( शीत तापादि सहन ) से, (२) क्षांतिक्षमा (क्रोधनिग्रह ) से, (३) अपान-केन तपकर्म ( छट्ठ-छट्ठ भक्त तपस्या ) से ।
(ख) गौतम गणधर तथा अन्य अणगारों के विशेषणों में स्थान-स्थान पर 'संखित्तविउलतेऊलेस्से' ससमास विशेषण शब्द का व्यवहार हुआ है।
-भग० श १ । उ १ । प्रश्नोत्थान सू ६ । पृ० ३८४ ( हमने यहाँ एक ही संदर्भ दिया है लेकिन अनेक स्थानों में इस ससमास विशेषण शब्द का व्यवहार हुआ है, अर्थ और भाव सब जगह एक हीं है।) ___(ग) कुद्धस्स अणगारस्स तेयलेस्सा निसहा समाणी दूरं गया, दूरं निपतति ; देसं गया, देसं निपतति ; जहिं जहिं च णं सा निपतति तहिं तहिं गं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासेंति जाव पभासेंति ।
-भग० श ७ । उ १० । सू ११ । पृ० ५३० ऋधित अणगार के द्वारा निक्षिप्त तेजोलेश्या दूर या पास जहाँ जहाँ जाकर गिरती है वहाँ वहाँ वे अचित्त पुद्गल द्रव्य अवभास यावत् प्रभास करते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org