________________
लेश्या-कोश
हैं वे भी कषाय रूप हो जाते हैं। यदि यह कहा जाता है कि योगपरिणामों के अन्तर्गत लेश्याएं हैं तो--'जोगा पयडिपएसं ठिइअणुभागं कसायओ कुणइ'-इस वचन के आधार पर लेश्या प्रकृति और प्रदेश के बन्ध का हेतु हो जाती है, कर्मस्थिति का हेतु नहीं बनती-यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि यह यथा उक्त भाव के अपरिज्ञान से कहा गया है।
फिर भी लेश्या स्थिति का हेतु नहीं है, किन्तु स्थिति के हेतु कषाय हैं ; लेश्याएं कषायोदय के अन्तर्गत अनुभाग (बन्ध) का हेतु हैं । अतएव 'जो स्थितिपाक विशेष है उसका पाकविशेष लेश्याविशेष से होता है'-इस वाक्य में अनुभाग का बोध कराने के लिए 'पाक' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका कर्मप्रकृति की टीका आदि में सुनिश्चित कथन है। इससे ज्ञात होता है कि उनका ( लेश्या को कर्म की स्थिति का हेतु कहने वालों का ) सिद्धान्त का परिज्ञान सम्यक नहीं है। यद्यपि कहा गया है---'कर्मनिष्यन्द-कर्म से निस्सरितझड़ी हुई लेश्या है।' इस लक्षण के अनुसार लेश्या का निष्यन्द रूप लिया जाय तो जब तक कषायोदय है तब तक निष्यन्द का भी सद्भाव होना चाहिए और वह कर्मस्थिति का हेतु भी बनता है-यह भी अमान्य है, क्योंकि लेश्या अनुभागबन्ध के हेतु होने से स्थितिबन्ध के हेतु के अयोग्य हो जाती है। और भीकर्मनिष्यन्द कर्मकल्क-कर्म की गाद है या कर्मसार-कर्म का सार है ? कर्मकल्क तो नहीं है, क्योंकि उसकी असारता के कारण उत्कृष्ट अनुभागबन्ध के हेतु की उत्पत्ति नहीं होती। कल्क असार होता है और वह असार उत्कृष्ट अनुभागबन्ध का कारण कैसे हो सकता है ? लेकिन लेश्याएं उत्कृष्ट अनुभागबन्ध का हेतु भी होती हैं। अब यदि कर्मसार पक्ष को लिया जाय तो वह किस कर्म का सार है ? यदि यथायोग आठों कर्मों का सार है तो शास्त्र में आठों कर्मों के विपाक का वर्णन मिलता है, परन्तु किसी कर्म का लेश्या रूप विपाक नहीं बताया गया है, अतः किस प्रकार कर्मसार पक्ष को स्वीकार किया जाय ? इस स्थिति में पूर्वोक्त पक्ष अर्थात् लेश्या योगान्तर्गत द्रव्य रूप है'-यही पक्ष श्रेय है, अतः इसी को स्वीकार करना चाहिए। इसको हरिभद्र सूरि प्रभृति आचार्यों ने स्थान-स्थान में स्वीकार किया है।
०६३ उमास्वाति या उमास्वामी : 'तत्वार्थाधिगम' में कोई परिभाषा नहीं दी गयो है। 'स्वोपग्यभाष्य इसमें भी लेश्या की कोई परिभाषा नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org