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बदलती लेश्या - बदलते भाव
छ: बन्धु किसी उपवन में घूमने गये तथा एक फल से लदे भरे-पूरे अवनत शाखा वाले जामुन वृक्ष को देखा। सबके मन में फलाहार करने की इच्छा जागृत हुई । सभी बन्धुओं के मन में लेश्या जनित अपने-अपने परिणामों के कारण भिन्न-भिन्न विचार जागृत हुए और उन्होंने फल खाने के लिए अलग-अलग प्रस्ताव रखे, उनसे उनकी लेश्या का । अनुमान किया जा सकता है।
प्रथम बन्धु का प्रस्ताव था कि कौन पेड़ पर चढ़कर तोड़ने की तकलीफ करे तथा चढ़ने में गिरने की आशंका भी है । अत: सम्पूर्ण पेड़ को ही काट कर गिरा दो और आराम से फलखाओ।
द्वितीय बन्धु का प्रस्ताव आया कि समूचे पेड़ को काटकर नष्ट करने से क्या लाभ ? बड़ी-बड़ी शाखायें काट डालो । फल सहज ही हाथ लग जायेंगे तथा पेड़ भी बच जायेगा।
तीसरा बन्धु बोला कि बड़ी डालें काटकर क्या लाभ होगा ? छोटी शाखाओं में ही फल बहुतायत से लगे हैं उनको तोड लिया जाय ! आसानी से काम भी बन जायेगा और पेड़ को भी विशेष नुकसान न होगा।
चतुर्थ बन्धु ने सुझाव दिया कि शाखाओं को तोड़ना ठीक नहीं । फल के गुच्छे ही तोड़ लिये जायें । फल तो गुच्छों में ही हैं और हमें फल ही खाने हैं । गुच्छे तोड़ना ही उचित रहेगा।
पंचम बन्धु ने धीमे से कहा कि गुच्छे तोड़ने की भी आवश्यकता नहीं हैं । गुच्छे में तो कच्चे-पक्के सभी तरह के फल होंगे । हमें तो पक्के मीठे फल खाने हैं । पेड़ को झकझोर दो, परिपक्व रसीले फल नीचे गिर पड़ेंगे । हम मजे से खा लेंगे।
छठे बन्धु ने ऋजुता भरी बोली में सबको समझाया क्यों बिचारे पेड़ को काटते हो, बाढ़ते हो, तोड़ते हो, झकझोरते हो ! देखो ! जमीन पर आगे से ही अनेक पक्केपकाये फल स्वयं निपतित होकर पड़े हैं । उठाओ और खाओ । व्यर्थ में वृक्ष को कोई क्षति क्यों पहुँचाते हो।
जैसे उक्त पुरुषों की छ: तरह की विचारधारणाएं हुई, इसी तरह लेश्याओं में भी अलग-अलग परिणामों की धारा होती है । प्रारम्भ की तीन - कृष्ण, नील, कापोत लेश्याएं, अशुभ हैं और पिछली तीन - तेजो, पद्म, शुक्ल, शुभलेश्याएं होती हैं।
(आवरण साभार : जैन भारती) ain Education International
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