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लेश्या - कोश
भगवान् महावीर के अन्तेवासी स्थविरों को अप्रतिलेश्य विशेषण दिया गया है, क्योंकि उनकी विशुद्ध लेश्या के स्थान उत्कृष्ट होते थे ।
०४.४ अप्पसत्थाणं लेसाणं ( अप्रशस्त लेश्या )
- उत्त० अ ३४ । गा १६,१८
जह गोमडस्स गंधो, सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स । एतो वि अनंतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं || जह करगयस्स फासो, गोजिब्भाए य सागपत्ताणं । एत्तो वि अनंतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं ||
अप्रशस्त लेश्या अर्थात् अशुभ लेश्या । कृष्ण, नील और कापोत-- इन तीन लेश्याओं को अप्रशस्त लेश्या कहा गया है । इन तीनों द्रव्यलेश्याओं की दुर्गन्धि क्रमशः गाय, कुत्ता तथा सर्प के मृत शरीर की दुर्गन्धि से अनन्तगुणी होती है तथा इनकी स्पर्श-कर्कशता क्रमशः करवत, गाय की जीभ और शाक- पत्तों से भी अनन्तगुणी होती है ।
०४ ५ अबहिल्लेसा ( अबहिर्लेश्य )
— ओव० सू २५
-आया० श्रु १ । अ ६ । उ ५ | सू १०६ | टीका मूल - (ओव) - ते णं काले णं ते णं समये णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो- Xxx अब हिल्लेस्सा
X X X I
संयम से बाहर ले जानेवाली - च्युत करनेवाली लेश्या या अध्यवसाय जिसके हों वह बहिश्य तथा जिसके नहीं हों वह अबहिंलेश्य |
टीका (आवा) - संयमाद् बहिर्निर्गता लेश्या अध्यवसायो यस्य स बहिर्लेश्यः यो न तथा स अबहिर्लेश्यः ।
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अबहिंलेश्य – तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या से भिन्न लेश्या में परिणमन नहीं करने वाला |
भगवान् महावीर के अन्तेवासी स्थविरों को अब हिलेश्य विशेषण दिया गया हैं, क्योंकि वे तेज, पद्म और शुक्ल को छोड़कर अन्य लेश्याओं में परिणमन नहीं करते थे ।
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