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की वर्गणा का अन्वय व्यतिरेकी सम्बन्ध माना जा सकता है। किन्तु भाव लेश्या और योग में अन्वय-व्यतिरेकी सम्बन्ध नहीं है। यह एक रहस्य है।
जीव और पुद्गल दोनों गतिशील है। पर वे निरपेक्ष रूप में गति नहीं कर पाते। इनकी गति क्रिया में सहायक तत्व है धर्मास्तिकाय ।
अस्तु मिथ्यात्वी का प्रथम गुणस्थान है। प्रथम गुणस्थान में कृष्णादि छहों लेश्याए होती है। सर्वार्थ सिद्धि में आचार्य पूज्य पाद ने कहा है
"लेश्यानुवादेन कृष्ण-नील-कापोतलेश्यानां मिथ्यादृष्ट्याद्यसंयतसम्यग्दृष्ट्यान्तानां सामान्योक्त क्षेत्रम् । तेजः पद्मलेश्यानां मिथ्यादृष्ट्याद्य प्रमत्तान्ताना लोकस्यासंख्येयभागः। शुक्ललेश्यानां मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तानां लोकस्यसंख्येयभागः।"
-तत्व० १ । सू८ अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में कृष्ण, नील और कापोत लेश्या-क्षेत्र की अपेक्षा सामान्योक्त क्षेत्र अर्थात् सर्व लोक में है। तेजो-पद्लेश्या मिथ्यादृष्टि से अप्रमत्त संयत तक होती है.-क्षेत्र की अपेक्षा लोक के असंख्तातवें भाग में है । शुक्ल लेश्या भिथ्यादृष्टि से क्षीण-कषाय पर्यंत होती है जो क्षेत्र की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में है।
अव्यवहार राशि की काय स्थिति दो प्रकार की है--(१) अनादिसांत व (२) अनादिअनंत । जो अव्यवहार राशि से कदापि व्यवहार राशि प्राप्त नहीं करेंगे वे अनादिअनंत हैं जो अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि को प्राप्त होगे वे अनादिसांत है।
आणविक आभा द्रव्यलेश्या है और परिणामस्वरूप लेश्या भावलेश्या है । लेश्या में वर्ण, गध, रस और स्पर्श होते हैं, उनमें बदलाव होता रहता है। लेश्या में परिवर्तन से व्यक्ति के विचारों और व्यवहारों में भी परिवर्तन होता है। यही कारण है कि मृत्यु के समय होने वाली लेव्या के आधार पर व्यक्ति के भावी जीवन की श्रेष्ठता या अश्रेष्ठता का बोध किया जा सकता है।
द्रव्य काययोग के अन्तर्गत कार्मण काययोग भी है जो चतुःस्पर्शी है। अतः काययोग चतुःस्पर्शी और अष्टस्पर्शी दोनों होना चाहिए। भगवती में द्रव्य काययोग के आठ स्पर्शी कहा गया है। यहाँ कार्मण काययोग की विवक्षा नहीं की गई है।
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