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( 116 ) ६-नन्दी वर्धन ७-सुदर्शना ( बहन ) ८-यशस्वती ( दोहित्री)
६० वर्ष ६-प्रियदर्शना (पुत्री)
६५ वर्ष १०-यशोदा-भगवान ने पत्नी को छोडकर दीक्षा ली। जिनकी अवस्था
१०० के आसपास थी।
दीक्षा के समय भगवान महावीर के प्रशस्त लेश्या थी, शुभ अध्यवसाय थे । दीक्षा के बाद छट्ठा गुणस्थाथ भी आया। उनमें छओं लेशा रही। गोशालक को बचाने के लिए शीतल तेजो लेश्या का भी प्रयोग किया ।
___ मनुष्य जिन परिस्थितियों में जिस वातावरण में रहता है, उनका उस पर असर होता है-यह सर्व सम्मत है।
इसका दार्शनिक तथ्य यह है कि मनुष्य जब सोचता है, तब उसे बहुत से पुद्गल स्कंधों को ग्रहण करना पड़ता है। क्योंकि पौद्गलिक सहायता के बिना विचारों का परिवर्तन नहीं हो सकता। अच्छे पुद्गल अच्छे विचारों के सहायक होते हैं और बुरे पुद्गल बुरे विचारों के। यह एक सामान्य नियम है। किसी क्षेत्र में ऐसे अनिष्ट पुद्गल होते हैं कि वे शुद्ध विचारों को एकाएक बदल डालते हैं। जैन परिभाषा में आत्मीय विचारों को भाव लेश्या और उनके सहायक पुद्गलों को द्रव्य लेश्या कहते हैं। जैसा कि कहा है
लेश्या का निक्षेप–नो आगम द्रव्य लेश्या के अन्तर्गत तद्व्यतिरिक्त नो आगम द्रव्य लेश्या के स्वरूप निर्दोष है। तदनुसार चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने योग्य पुद्गल स्कन्धों के वर्ण का नाम तदव्यतिरिक्त द्रव्य लेश्या है वह कृष्ण, नीलादि के भेद से छः प्रकार की है। वह किनके होती है, इसे बताया गया है।
नो आगम भाव लेश्या के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि कर्मागमन का कारण भूत जो मिथ्यात्व, असंयम और कषाय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति होती है उसका नाम नो आगम भाव लेश्या है। अभिप्राय यह है कि यिथ्यात्व, असंयम और कषाय के आश्रय से जो संस्कार उत्पन्न होता है उसे नो आगम भाव लेश्या जानना चाहिए। यहाँ नैगम नय की अपेक्षा नो आगम द्रव्य लेश्या ओर नो आगम भाव लेश्या ये दो प्रसंग प्राप्त है।
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