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सतरह प्रकार का संयम कहा है- हिसादि पांचाश्रव से विरति, पंचेन्द्रिय निग्रह, चार कषायजय व मन-वचन-काय दण्डविरति एवं १७ प्रकार का संयम |
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लेश्या के दो भेद हैं-- द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । पौद्गलिक ( Physical ) लेश्या और आत्मिकलेश्या । वह निरन्तर बदलती रहती है । लेश्या प्राणी का औरा ( आभामण्डल ) का नियामक तत्त्व है । ओरा कभी काला, कभी लाल, कभी पीला, कभी नीला और कभी सफेद रंग उभर आता है । भावों के अनुरूप रंग बदलते रहते हैं । हमारी वृत्तियां भाव या आदतें-- इन सबको उत्पन्न करने वाकला सशक्त तन्त्र हैं— लेश्या तन्त्र |
प्रश्न व्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य को बत्तीस उपमा से उपमित किया है जिसमें एक उपमा लेश्या की भी है । कहा है
तं बंभं भगवंतं – गहगण - नक्खत्ततारागाणं वा जहा उडुपती Xxx सासु य परमसुक्कलेम्सा x x x एवमणेगा गुणा अहीणा भवंति एक्कंमि बंभचेरे ।
- पण्हा० अ ह । सू २
जैसे ग्रह-नक्षत्र - तारा आदि में चन्द्रमा श्रेष्ठ है, लेश्या में परमशुक्ललेश्या श्रेष्ठ हैं । उसी प्रकार सत्र व्रतों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ हैं ।
भावधारा ( लेश्या ) के आधार पर आभामण्डल बदलता है और लेश्या ध्यान के द्वारा आभामण्डल को बदलने से भावधारा भी बदल जाती है । हमारी भावधारा जैसी होती है उसी के अनुरूप मानसिक चिन्तन तथा शारीरिक मुद्राएं होती है । कषाय की मंदता में लेश्या, अध्यवसाय शुद्ध होते हैं ।
अन्वय तथा व्यतिरेक से लेश्या के सयोगत्व की अपेक्षा ( लेश्या ) के द्रव्यों को योग के अन्तर्गत समझना चाहिए। जिससे आत्मा कर्म के साथ लिप्त होती है वह लेश्या है | अस्तु लेश्या योग के अन्तर्गत द्रव्य रूप हैं | योग द्रव्य कषाय उदय का कारण है लेश्या से स्थितिपाक विशेष होता है कषायोदय के अन्तर्गत कृष्णादि लेश्या के परिणाम हैं । असल में कृष्णादि अशुभलेश्या कषाय उदय रूप ही है । कृष्णादि द्रव्यों के निमित्त से, मुख्यता से स्फटिक की तरह आत्मा के जो परिणाम होते हैं उसमें इस लेश्या की प्रवृत्ति होती है । जिसके द्वारा जीव अपने को पाप-पुण्य में लिप्त करें उसको लेश्या कहते हैं । १
१. गोजी० गा ४८८ | संस्कृत छाया
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