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________________ २८२ लेश्या - कोश अत्थेगइए गोथमा ! अत्थेगइए बंधी बंधी न बंधइ न जाव - - पम्हलेस्से कण्हलेस्ले '६६२४ वेदनीय कर्म का बन्धन तथा लेश्या :जीवे णं भंते! वेयणिज्जं कम्मं किं बंधी० पुच्छा ? ias बंधिस्सर १, अत्थेगइए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २, frees ४, सस्से वि एवं वेव तहयविहूणा भंगा । पडम-बिइया भंगा, सुक्कलेस्से तइयविहूणा भंगा, अल्लेसे चरिमो भंगो । कण्हपक्खि पढमबिइया । सुक्कपक्खिया तश्यविहूणा । एवं सम्मदिट्ठिस्स वि ; मिच्छादिट्ठिस्स सम्मामिच्छादिट्ठिस्स य पढमबिइया । णाणिस्स तइयविहूणा, आभिणिबोहिय, जाव मणपज्जवणाणी पढमबिइया, केवलनाणी तयविहूणा । एवं नो सन्नोवउत्ते, अवेदए, अकसायी । सागारोवउत्त अणागारोव एएस तइयबिहूणा । अजोगिम्मि य चरिमो, सेसेसु पढमचिश्या । -भग० श २६ । उ. १ । प्र १७ । पृ० ८६६-६०० वेदनीय कर्म ही एक ऐसा कर्म है जो अकेला भी बंध सकता है। यह स्थिति ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें गुणस्थान के जीवों में होती है । इन गुणस्थानों में वेदनीय कर्म के अतिरिक्त अन्य कर्मों का बन्धन नहीं होता है । इनमें से ग्यारहवें गुणस्थान वाले को चतुर्थ भंग लागू नहीं हो सकता है । चौदहवें गुणस्थान के जीव के निर्विवाद चतुर्थं भंग लागू होता है । उपरोक्त पाठ से यह ज्ञात होता है कि सलेशी - शुक्ललेशी जीवों में कोई एक जीव ऐसा होता है जिसके चतुर्थ भंग से वेदनीय कर्म का बन्धन होता है अर्थात् वह शुक्ललेशी जीव वर्तमान में न तो वेदनीय कर्म का बन्धन करता है और न भविष्यत् में करेगा । चौदहवें गुण स्थान का जीव सलेशी शुक्ललेशी नहीं हो सकता है । अतः उपरोक्त शुक्ललेशी जीव बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान वाला ही होना चाहिए। लेकिन बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान के जीव के साता वेदनीय कर्म का बन्धन ईर्यापथिक के रूप में होता रहता है । बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थान का जीव वेदनीय कर्म का अबन्धक नहीं होता है । -अन्य टीकाकार का कहना है, “सलेशी जीव पूर्वोक्त हेतु से तीसरे भंग को बाद देकर - भंगों से वेदनीय कर्म का बन्धन करता है लेकिन उसमें चतुर्थ भंग नहीं घट सकता है क्योंकि चतुर्थ भंग लेश्या रहित अयोगी को ही घट सकता है । लेश्या तेरहवें गुणस्थान तक होती है तथा वहाँ तक वेदनीय कर्म का बन्धन होता रहता है । कई आचार्य इसका इस प्रकार समाधान करते हैं कि इस सूत्र के वचन से अयोगीत्व के प्रथम समय में घण्टालाला न्याय से परम शुक्ललेश्या संभव है तथा इसी अपेक्षा से सलेशी - शुक्ललेशी जीव के चतुर्थ भंग घट सकता है । तत्त्व बहुश्रुतगम्य है । " हमारे विचार में इसका एक यह समाधान भी हो सकता है कि लेश्या परिणामों की अपेक्षा अलग से वेदनीय कर्म का बन्धन होता है तथा योग की अपेक्षा अलग से वेदनीय कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016037
Book TitleLeshya kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1966
Total Pages338
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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