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इसको देखने से पता चलता है कि रत्नप्रभापृथ्वी के नारकी के शरीर का वर्ण काला या कालावभास तथा परम कृष्ण होता है लेकिन लेश्या कापोत नाम की कापोत वर्णवालो ही होती है । इस विषय में और भी अनुसंधान करने की आवश्यकता है।
__ भावलेश्या जीव परिणामों के दस भेदों में से एक भेद है । अतः जीव की एक परिणति विशेष है। टीकाकारों के अनुसार जीव की लेश्यत्व रूप परिणति आत्म प्रदेशों के साथ कृष्णादि द्रव्यों के साचिव्य-सान्निध्य से होती है। यह साचिव्य या सान्निध्य किस कर्म या कर्मों से होता है-यह विवेचनीय है।
लेश्यत्व जीवोदयनिष्पन्न भाव है। अतः कर्म या कर्मो के उदय से जीव के आत्मप्रदेशों से कृष्णादि द्रव्यों का सान्निध्य होता है तथा तज्जन्य जीव के छ भावलेश्यायें होती हैं। अतः लेश्या को उदयनिष्पन्न भाव कहा गया है। नियुक्तिकार भी कहते हैं
भावे उदओ भणिओ, छण्हं लेसाण जीवेसु ।। जीवों में-उदयभाव से छ लेश्यायें होती हैं। नियुक्तिकार के अनुसार विशुद्ध भाव लेश्या-कषायों के उपशम तथा क्षय से भी होती है। अतः औपशमिक तथा क्षायिक भाव भी हैं। नियुक्ति की इस गाथा पर टीकाकार का कथन है कि विशुद्ध लेश्या को जो औपशमिक तथा क्षायिक भाव कहा गया है वह एकान्त विशुद्धि की अपेक्षा से कहा गया है अन्यथा क्षायोपशमिक भाव में भी तीनों विशुद्ध लेश्यायें होती हैं।
गोम्मटसार के कर्ता भी मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम से जीव के प्रदेशों की जो चंचलता होती है उसमें भावलेश्या मानते हैं।
'लेश्या' के कर्मलेश्या (कम्मलेस्सा) तथा सकर्म लेश्या (सकम्मलेस्सा) दो पर्यायवाची शब्द हैं। कर्मलेश्या शब्द आत्मप्रदेशों को कर्मों से लिश्य–लिप्त करनेवाली प्रायोगिक द्रव्यलेश्या का द्योतक है। इसको भावितात्मा अनगार पौद्गलिक सूक्ष्मता के कारण न जान सकता है, न देख सकता है। दूसरा पर्यायवाची शब्द सकर्मलेश्या-चन्द्र, सूर्य आदि से निर्गत ज्योति, प्रभा आदि विलसा द्रव्यलेश्याओं का द्योतक है ( देखें ०२)।
सविशेषण-ससमास लेश्या शब्दों में कितने ही शब्द प्रायोगिक द्रव्य और भावलेश्या से संबंधित हैं। शब्द नं० १४-१५-१६ तेजोलब्धि जन्य लेश्या से संबंधित हैं। 'अवहिल्लेस्से' जैसे शब्द भावितात्मा अनगार की लेश्या के द्योतक हैं (देखो '०४)।
द्रव्यलेश्या बिस्रसा यदापि जीवपरिणाम से संबंधित नहीं है तो भी सम्पादकों ने द्रव्यलेश्या विस्रसा संबंधी कतिपय पाठ इस पुस्तक में उद्धृत किये हैं। ऐसा उन्होंने द्रव्यलेश्या प्रायोगिक के साथ तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से ही किया होगा। द्रव्यलेश्या प्रायोगिक तथा द्रव्यलेश्या विरसा के पुद्गलों में परस्पर क्या समानता अथवा भिन्नता है इस सम्बन्ध में सम्पादकों ने कोई पाठ नहीं दिया है ( देखें ३)।
विशिष्ट तपस्या करने से बाल तपस्वी, अनगार तपस्वी आदि को तेजोलेश्या रूप तेजोलब्धि की प्राप्ति होती है। देवताओं में भी तेजोलेश्याल ब्धि होती है। यह तेजोलेश्या प्रायोगिक द्रव्यलेश्या के तेजोलेश्या भेद से भिन्न प्रतीत होती है। यह तेजोलेश्या दो प्रकार की होती है-(१) शीतोष्ण तेजोलेश्या तथा (२) शीतल तेजोलेश्या। शीतोष्ण तेजोलेश्या ज्वाला-दाह पैदा करती है, भस्म करती है। आजकल के अणुबम की तरह
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