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प्रतीत होता है कि परिणाम, अध्यवसाय व लेश्या में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। जहाँ परिणाम शुभ होते हैं, अध्यवसाय प्रशस्त होते हैं वहाँ लेश्या विशुद्धमान होती है। कर्मों की निर्जरा के समय में परिणामों का शुभ होना, अध्यवसायों का प्रशस्त होना तथा लेश्या का विशुद्धमान होना आवश्यक है (देखें '६६२)। जब वैराग्य भाव प्रकट होता है तब इन तीनों में क्रमशः शुभता, प्रशस्तता तथा विशुद्धता होती है ( देखें '६६२३)। यहाँ परिणाम शब्द से जीव के मूल दस परिणामों में से किस परिणाम की ओर इंगित किया गया है यह विवेचनीय है। लेश्या और अध्यवसाय का कैसा सम्बन्ध है यह भी विचारणीय विषय है ; क्योंकि अच्छी-बुरी दोनों प्रकार की लेश्याओं में अध्यवसाय प्रशस्त-अप्रशस्त दोनों होते हैं ( देखें ६६.१६)। इसके विपरीत जब परिणाम अशुभ होते हैं, अध्यवसाय अप्रशस्त होते हैं तब लेश्या अविशुद्ध-संक्लिष्ट होनी चाहिए। जब गर्भस्थ जीव नरक गति के योग्य कर्मों का बन्धन करता है तब उसका चित्त, उसका मन, उसकी लेश्या तथा उसका अध्यवसाय तदुपयुक्त होता है। उसी प्रकार जब गर्भस्थ जीव देव गति के योग्य कमों का बन्धन करता है तब उसका चित्त, उसका मन, उसकी लेश्या तथा उसका अध्यवसाय तदुपयुक्त होता है। इससे भी प्रतीत होता है कि इन तीनों का-- मन व चित्त के परिणामों का, लेश्या और अध्यवसाय का सम्मिलित रूप से कर्म बन्धन में पूरा योगदान है (देखें '६६६)। इसी प्रकार कर्म की निर्जरा में भी इन तीनों का पूरा योगदान होना चाहिये। ____ जीव लेश्या द्रव्यों को ग्रहण करता है तथा पूर्व में गृहीत लेश्या द्रव्यों को नव गृहीत लेश्या द्रव्यों के द्वारा परिणत करता है, कभी पूर्ण रूप से तथा कभी आकार-भाव मात्रप्रतिबिम्बभाव मात्र से परिणत करता है। जीव द्वारा लेश्या द्रव्यों का ग्रहण किस कर्म के उदय से होता है यह विवेचनीय विषय है। इस विषय पर किसी भी टीकाकार का कोई विशेष विवेचन नहीं है। केवल एक स्थल पर लेश्यत्व को संसारस्थत्व-असिद्धत्व की तरह अष्ट कर्मों का उदय जन्य माना है। लेकिन इससे द्रव्यलेश्या के ग्रहण की प्रक्रिया समझ में नहीं आती है।
आचार्य मलयगिरि का कथन है कि शास्त्रों में आठों कर्मों के विपाकों का वर्णन मिलता है लेकिन किसी भी कर्म के विपाक में लेश्या रूप विपाक उपदर्शित नहीं है। सामान्यतः सोचा जाय तो लेश्या द्रव्यों का ग्रहण किसी नामकर्म के उदय से होना चाहिए। नामकम में भी शरीर नामकर्म के उदय से ही ग्रहण होना चाहिए। यदि लेश्या को योग के अन्तर्गत माना जाय तो द्रव्यलेश्या के पुद्गलों का ग्रहण शरीर नामकर्म के उदय से होना चाहिये ; क्योंकि योग शरीर नामकर्म की परिणति विशेष है ( देखो पृ० १०)। शुभ नामकर्म के उदय से शुभ लेश्याओं का ग्रहण होना चाहिए तथा अशुभ नामकर्म से अशुभ लेश्या का ग्रहण होना चाहिए। लेकिन तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य-जयाचार्य का कहना है कि अशुभ. लेश्याओं से पापकर्म का बन्धन होता है तथा पापकर्म का बन्धन केवल मोहनीय कर्म से होता है। अतः अशुभ द्रव्य लेश्याओं का ग्रहण मोहनीय कर्म के उदय के समय होना चाहिये।
अन्यत्र ठाणांग के टीकाकार कहते हैं कि योग वीर्य-अन्तराय के क्षय-क्षयोपशम से होता है।
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