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( १५ )
.१.२ औधिक निर्ग्रन्थों का विवेचन
(क) निर्ग्रन्थों की द्धि
तेणं कालेणं तेणं समरणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे निग्गंथा भगवंतो ; अप्पेगइया आभिणिबोहियणाणी जाव केवलणाणी अप्पेगइया मणबलिआ वयबलिआ कायबलिआ अप्पेगइया मणेणं सावाणुग्गह- समत्था चरणं सावाणुग्गह समत्था, कारणं सावाणुग्गहसमत्था अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता । एवं जल्लोसहिपत्ता विष्पोसहिपत्ता आमोसहिपत्ता सव्वोसहिपत्ता | अप्पेगइया कोट्ठबुद्धि एवं बीअबुद्धि पडबुद्धि | अप्पेगइया पयागुसारि । अप्पेगइया संभिन्नसोआ । अप्पेगइया खीरासवा । अप्पेगइया महुआसवा | अप्पेगइया सपिआसवा । अप्पेगइया अक्खीणमहाणसिआ । एवं उज्जुमई । अप्पेगइया विउलमई । विउच्चणिढिपत्ता वारणा विज्जाहरा आगासाइवाईण | - ओव० सू २४
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भगवान् के साथ जो श्रमण थे, वे कैसे थे- - उनका वर्णन किया जाता है ।
उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी बहुत से निर्ग्रन्थ ( भगवान् के साथ में ) थे । जिनमें कई आमिनिबोधिक ज्ञानी यावत् केवल ज्ञानी थे ।
कई मनोबली, वचनत्रली और कायबली थे। कई मन से शाप ( अपकार ) और अनुग्रह ( उपकार ) करने में समर्थ थे । कई वचन से शाप और कृपा करने में समर्थ थे । और कई काया से शाप और कृपा करने में समर्थ थे ।
कई लौषधि ( कार से ही सभी रोगादि मिटाने की शक्ति) को पाये हुए थे ।
इसी प्रकार जल्लोषधि ( = शरीर के मैल से रोग आदि अनर्थ उपशांत करने की शक्ति विप्रुडोषधि ( = मूत्रादि की बूंदों रूप औषधि, अथवा वि का अर्थ विष्ठा और प्रका अर्थ प्रश्रवण (मूत्र) है, ये दोनों औषधिरूप ), आमर्ष (हस्तादि स्पर्श), औषधि, सर्वोषधि ( केश, नख, रोम, मल आदि सभी का औषधि रूप बन जाना ) लब्धि को प्राप्त थे ।
कई कोष्टबुद्धि वाले ( = कोठार में भरे हुए सुरक्षित धान्य की तरह प्राप्त हुए सूत्रार्थ को धारण करने में समर्थ मतिवाले ) थे । इसी प्रकार बीज बुद्धिवाले ( = बीज के समान विस्तृत और विविध अर्थ के महावृक्ष को उपजाने वाली बुद्धि के धारक ) और पटबुद्धिवाले ( वस्त्र में संग्रहीत पुष्पफल के समान, विशिष्ट वक्ताओं द्वारा कथित प्रभूत सूत्रार्थ का संग्रह करने में समर्थ बुद्धिवाले ) थे ।
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