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णिनामक यक्षायतने शेषं वर्षावासमारेभे तत्र च यदा रात्रौ शूलपाणिर्भगवतः क्षोभणाय शटिति टालिताट्टालकमट्टट्टहासं मुञ्चन् लोकमुस्त्रासयामास तदा विनाश्यते स भगवान् देवेनेति भगवदालम्बनां जनस्याधृतिं जनितवान् पुनःर्ह - स्तिपिशाच नागरूपैर्भगवतः क्षोभं कर्त्तुमशक्नुवन् शिरः कर्णनासादन्तनखाक्षिपृष्ठिवेदनाः प्राकृतपुरुषस्य प्रत्येकं प्राणापहारप्रवणाः सपदि सम्पादितवान्क्षमस्व क्षमाश्रमण इति तथा सिद्धार्थाभिधानो व्यन्तरदेवस्तन्निग्रहार्थमुद्दधाव, बभाण च -- अरे रे शूलपाणे अप्रार्थित प्राथक हीनपुण्यचतुर्दशीक श्रीह्रीधृतिकीर्त्ति वर्जित दुरन्तप्रान्तलक्षण ! न जानासि सिद्धार्थ - राजपुत्रं पुत्रीयितनिखिलजगजीव जीवितसममशेष सुरासुरनर निकायनायकानामेनं न भवदपराधं यदि जानाति त्रिदशपतिस्ततस्त्वां निर्विषयं करोतीति श्रुत्वा चासौ भीतो द्विगुणतरं क्षमयति स्म, यथा सिद्धार्थश्व तस्य धर्ममचकथत् ।
स चोपशान्तो भगवतं भक्तिभरनिर्भरमानसो गीतनृत्तोपदर्शनपूर्व कमपू पूजत्, लोकश्व चिन्तयाञ्चकार - देवार्यकं विनाश्येदानीं देवः क्रीडतीति, स्वामी
देशोनांश्चतुरो यामानतीव तेन परितापितः प्रभातसमये मुहूर्त्तमात्रं निद्राप्रमादमुपगतचान् तत्रावसरे इत्यर्थोऽथवा छद्मस्थकाले भवा अवस्था छद्मस्थकालिकी तस्यां ।
- ठाण० स्था १० / सू १०३ / टीका
अभिनिष्क्रमण कर ज्ञातखंड उपवन में आठ मास तक विहार वहाँ दो महिने रहकर शूलपाणि यक्षायतन ने
भगवान महावीर अपने जन्मस्थान कुन्डपुर से एकाकी प्रवजित हुए । वह मृगशीर्ष कृष्णा दशमी का दिन था । कर वे अपने पिता के मित्र के आश्रम में पर्यूषणा कल्प के लिए ठहरे। वे अकाल में ही वहाँ से निकलकर अस्थिग्राम सत्रिदेश के बाहिर उन्हें अनेक कष्ट दिये । तब व्यन्तर देव सिद्धार्थ ने उसे भगवान् महावीर का परिचय शूलपाणि का क्रोध उपशांत हुआ । वह भगवान की भक्ति करने लगा ।
दिया ।
शूलपाणि यक्ष ने भगवान् को रात्रि के ( कुछ समय कम ) चारों प्रहर तक परितापित किया। अंतिम रात्रि में भगवान को कुछ नींद आई और तब उन्होंने दस स्वप्न देखें ।
यहाँ अंतिम रात्रि का अर्थ है-रात्रि का अवसान, रात्रि का अंतिम भाग ।
१ - स्थानांग वृत्ति, पत्र ४७६ : 'अंतिमराइथंसि' त्ति अन्तिमा - अन्तिम भागरूपा अवयवे समदायोपचारात् सा चासौ रात्रिका चान्तिमरात्रिका तस्यां रात्रेरवसान इत्यर्थः ।
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