________________
( १९५ ) उसके बाद श्रमणोपासक सहाल पुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक को इस प्रकार कहा
हे देवानुप्रिय ! जिसके लिए हमारे धर्माचार्य महावीर के विद्यमान, सत्य, तथा प्रकार के सद्भूत भावों से गुणकीर्तन किये हो-इस कारण मैं तुमको (गोशालक) वापस देने योग्य पीठ, आसन, यावत् संस्तारक द्वारा आमन्त्रण करता है। परन्तु धर्म और सप की बुद्धि से नहीं करता हूँ।
उसके लिए तुम जाओ और हमारी कुंभकार की शाला में प्रातिहारिक, पीठ, फलक, यावद ग्रहणकरके रहो।
उसके बाद वह मंखलि पुत्र गोशालक श्रमणोपासक सद्दाल पुत्र को जब आघवन्नकथन, प्रशापना, संज्ञापना और विज्ञापना से निग्रन्थ प्रवचन से चलायमान कराने में, सोम कराने में, विपरिणाम कराने में समर्थ नहीं हुआ तब प्रांत हुआ, तांत-ग्लानि को प्राप्त हुआ और परितान्त-खिन्न हुआ पोलासपुर नगर से निकला और बाहर के देशों में विचरने लगा। .२ गोशालक-बाद-विवाद करने में समर्थ नहीं
सहाल पुत्र को आह्वान
तपणं से सहालपुत्ते समणोषासए गोसालं मखलिपुत्तं एवं पयासीतुम्भे णं देवाणुप्पिया! इयच्छेया इयदच्छा इयपट्ठा इय निडणा इयनयषादी इयउपएसलद्धा इयविण्णाणपत्ता! पभू णं तुम्भे ममधम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं समजेणं भगषया महावीरेणं सद्धिं विवाद करेत्तए १ नो इण? सम?।
से केणढणं देवाणुप्पिया! एवं वुश्वइ-नो खलु पभू तुब्भे मम धम्मायरिएणं (धम्मोषएसएणं समणेणं भगवया) महावीरेणं सद्धिं विषादं करेत्तए ? सहाजपुत्ता! से जहानामए के पुरिसे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरग्गहत्थे पडिपुण्णपाणिपाए पितरोरुसंधायपरिणए धणनिचियवहपलियखंधे घण-वग्गण-जयण-वायाम-समत्थे चम्मेह-दुघण-मुडिय-समाहय-निचयगत्ते परस्सबलसमनागए तालजमलजुयलबाहू छेए दक्खे पत्तह, निउणसिप्पोषगए एग महं अयं षा एलयं वा सूयरं वा कुक्कुडं वा तित्तरं वा वट्टयं वा लावयं षा कवोयं षा कर्षिजलं वा पायसं पा सेणयं षा, हत्थंसि पा पायंसि पा खुरंसि पा पुच्छसि पा पिच्छंसिवा सिंगसि वा पिसाणंसि वा रोमंसि वा जहि-जहिं गिण्डर, तहिंतहि निश्चल निप्पंदं करेइ, एवामेव समणे भगवं महावीरे मम बहूहि अडेहि य ऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य जहिं जहि गिहा, तहिं तहिं निप्पटु-पसिणवागरणं करेइ। से तेण?ण सहालपुत्ता !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org