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( ३७४ ) १४ गोशालक-श्रमणनिग्रंथों द्वारा धर्मचर्चा में निरुत्साह
तएणं ते समणा णिग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वंदइ, णमंसद, वंदिता णमसित्ता जेणेष गोसाले मखलिपुत्ते तेणेष उवागच्छंति, तेणेष उवागच्छित्ता गोसालं मखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोयंति, ध०२ पडिचोएत्ता धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेति, ध० २ पडिसारेत्ता धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेति, ध० २ पडोयारित्ता अढे हि य हेऊहि य कारणेहि य जाव वागरणं करेंति।
-भग श १५/प्र११७ पृ० ६८४ जब श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ऐसा कहा, तब श्रमण निर्गन्थो ने भ्रमण भगवान महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार किया और गोशालक के साथ धर्म सम्बन्धी प्रतिचोदना (उसके मत के प्रतिकूल वचन) प्रतिसारणा ( उसके मत के प्रतिकूल अर्थ का स्मरण कराना ) तथ्य प्रत्युपचार किया और अर्थ हेतु तथा कारण आदि के द्वारा उसे निरुत्तर किया।
तेजोलेश्याविश्यमामनवपुष्को । भूमौ पपात गोशालः शालगुरिष वायुना ॥ ४२२ ॥ गुर्ववक्षाप्रकुपिता मुनयो गौतमादयः। एवं मर्या विधा वाचोच्चकैर्गोशालमूचिरे ॥ ४२३ ॥ धर्माचार्यकातिकूल्यभाजांमो! भवति दृशम् । तेजोलेश्या क्षतवसा धर्माचार्ये नियोजिता ? ॥४२४॥ सुचिरं विषाणोऽपिनिघ्नन्नपि महामुनि । कृपयोपेक्षितो भ; स्वयमेव विपत्स्यसे ॥ ४२५ ॥ व्यपत्स्यथाः पुराऽपि त्वं वैशिकायनलेश्यया। स्वलेश्यया शीतया त्वां नारक्षिष्यद्यदि प्रभुः॥ ४२६ ॥ शादूर्ल इव गर्ताऽन्तः पतितस्तेषु साधुषु । निम्कतु सोऽसमस्तस्थावुल्लनपरः क्रुधा॥ ४२७॥
-त्रिशलाका पर्व १.सर्ग गोशालका शरीर तेजो लेश्या से ग्लानि को प्राप्त हो गया गोशालक विलाप करता वहाँ की वायु से शाल वृक्ष की तरह पृथ्वी पर पड़ गया ।
उस समय गुरु की अवज्ञा से कोप प्राप्त गौतम आदि मुनि मर्मभेदी वचनों से गोशालक से उच्च स्वर से कहने लगे। अरे मुर्ख ! यदि कोई स्वयं के धर्माचार्य से प्रतिकूल
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