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________________ ( ३५७ ) जाप षिहरइ, गोसाले मखलिपुत्ते अजिणे जिणपप्पलावी जाप विहरइ, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाय जिण सह पगासेमाणे विहरइ । -भग श १५/प्र३ ___ अन्यदा किसी एक दिन गोशालक से वे छह दिशाचर आकर मिले । यथा-शान आदि। (पूर्वोक्त वर्णन यह जिन न होते हुए भी अपने लिए 'जिन', शब्द भी प्रकाश करता हुआ विचरता है । ) हे गौतम ! मंखलिपुत्र गोशालक वास्तव में जिन नहीं है परन्त जिना शब्द का प्रलाप करता हुआ यावत् 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है। गोशालक अजिन है। तत्पश्चात् वह अत्यंत बड़ी परिषद् ग्यारहवें उद्देश्यक के नववे उद्देशक में शिव राजर्षि के चरित्रानुसार धर्मोपदेश सुनकर और वंदना नमस्कार कर चली गयी। श्रावस्ती नगरी में शृगाटक (त्रिक मार्ग) याबत राजमागों में बहुत से मनुष्य इस प्रकार यावत् प्ररूपणा करने लगे-हे देवानुप्रियो ! मंखलिपुत्र गोशालक "जिन होकर अपने आपको 'जिन' कहता हुआ विचरता है। यह बात मिथ्या है । श्रमण भगवान महावीर स्वासी कहते हैं यावत प्ररूपणा करते हैं कि मंखलिपुत्र गोशालक का मंखलि नामक मंख (भिक्षाचर विशेष) पिता था, इत्यादि । पूर्वोक्त सारा वर्णन यावत गोशालक जिन नहीं होते हुए भी 'जिन' शब्द का प्रकाश करता हुआ विचरता है-तक जानना चाहिए । ___ इसलिये मंखलिपुत्र गोशालक जिन नहीं है। वह व्यर्थ ही-'जिन' शब्द का प्रलाप करता हुआ विचरता है, श्रमण भगवान महावीर स्वामी जिन है यावत् 'जिन' शब्द का प्रकाश करते हुए विचरते है । जिन प्रलापी गोशालक का रोष इत्याख्याय ततो नाथः श्रावस्ती विहरन् ययौ। तस्यां च समवायार्षीदुद्याने कोष्ठकाभिधे ॥ ३५४ ॥ तस्यां प्रागागतस्तेजो लेश्याहतपिरोधिकः। अष्टांगनिमित्तहानज्ञात लोकमनोगतः॥ ३५५ ॥ भजिनोऽपि जिनशब्दमात्मना संप्रकाशयन् । हालाहलाकुंचकार्या गोशालोऽवसरापणे ॥ ३५६ ॥ तस्य चाहन्निति ख्यातिलोक आकर्ण्य मुग्धवीः । उपेत्योपेत्य विदधे निरन्तरमुपासनम् ॥ ३५७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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