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( ३४३ ) स नीर गासीत्कियद्भिरप्यहोभिदाम्भसा। मनो ज्ञापयषो जो पसन्तेनेव पादपः ॥ ११३ ॥ आरोग्य हृष्टो षषले विप्रःक्षिप्रं स्ववेश्मनि । पुंसां पपुर्षिशेषोऽथः शृंगारो जन्मभूमिषु ॥ ११४ ॥ पुर्या' स प्रविशन् पौरैर्दडशे जातविस्मयैः। देदीप्यमानो निर्मुक्तनिर्मोक इव पम्नगः ॥ ११५ ॥ पौरेः पृष्टः पुनर्जात इवोल्लाघः कथंन्वसि ।। देषताराधनादस्मीत्याचचक्षे स तु द्विजः ॥ ११६ ।। स गत्वा स्वगृहेऽपश्यत् स्वपुत्रान् कुष्ठिनो मुहा । मयाऽवशाफलं साधु दत्तमित्यवदच्च तान् ॥ ११७ ॥ सुतास्तमेषमुचुश्च भवता तात! निघृणं । विश्वस्तेषु कियस्मासु द्विषेवेदमनुष्ठितम् ।। ११८ ॥
-त्रिशलाका पर्व १०।सर्गह
उस प्रकार वह घर का जल पीने से, कितनेक दिवस में वह तद्दन नीरोगी हुआ और बसन्त ऋतु में वृक्ष की तरह उसके सर्वांग वापस प्रफुल्लित हो गये । आरोग्य होने के कारण वह विप्र हर्षित होकर स्वयं के घर की ओर रवाना हुआ। पुरुष को शरीर की प्रारोग्यता प्राप्त होने से जन्मभूमि शृङ्गार रूप हो जाती है ।
कांचली से मुक्त हुए सर्प की तरह देदीप्यमान शरीर वाले उसको नगर के लोगों ने विस्मित होकर नगरी में प्रवेश करते हुए देखा ।
नगरजन उसे ऐसा आरोग्य वाला देखकर पूछने लगे कि-अरे! तुम जानो वापस जन्म लिया हो--वेसे ऐसा साज किस प्रकार हुआ।
प्रत्युत्तर में वह कहता था कि-देवता के आराधना से हुआ हूँ। अनुक्रमतः अपने घर आया। वहाँ उसने अपने सब पुत्रों को कुष्टी हुआ देखा । फलस्वरूप वह हर्षित होकर बोला कि-तुम लोगों को मेरी अवज्ञा का फल केसे ही मिल गया। यह सुनकर पुत्र बोले-"अरे ! निर्दय पिता! तुम द्वेषी की तरह हमारे जैसे विश्वासी पुत्रों पर यह क्या किया।
यह बात सुनकर लोग भी उस पर बहुत आक्रोश करने लगे।
लोकैराश्यमानः स राजन्नागत्य ते पुरम् । आभयजीषिकाद्वारं द्वारपालं निराश्रयः ॥ ११६ ।।
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