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( ३२८ ) सिया य बीयोदगइरिथयाओ, पडिसेषमाणा समणा भवंतु । अगारिणो वि समणा भवंतु, सेवंति उ तेषितहप्पगार । जे यावि बीओदगभोइ भिक्खू, भिक्खं विहं जायइ जीषियट्ठी। ते णाइसंजोगमषिप्पहाय, काओवगा गंतकरा भवति ।
-सूय. श्रु. २।अागा ८,६.१. पृ० ४६२ कच्चा जल, बीजकाय, आषाकर्म और स्त्रियों-इनको सेवन करने वाले गृहस्थ है श्रमण नहीं है। बीजकाय कच्चा, जल, आधा कर्म एवं स्त्रियों को सेवन करने वाले पुरुष भी श्रमण हो तो गृहस्थ भी श्रमण क्यों नहीं माने जायेंगे, क्योंकि वे भी पूर्वोक्त विषयों को सेवन करते है। (ग) गोशालक का प्रवाद
इमं वयं तु तुम पाउकुब्ध, पाषाणो गरहसि सव्व एष। पापाइणो पुढो किट्टयंता, सयं सयं विट्टि करेंति पाउँ ।
-सूय. श्रु धागा ११।पृ• ४६२ गोशालक करता है कि है आद्र कुमार! तुम इस कथन को कहते हुए सम्पूर्ण प्रावादकों की निन्दा करते हो। प्रावादुकगण अलग-अलग अपने सिद्धांतों को बताते हुए अपने दर्शन को श्रेष्ठ कहते है। आर्द्र कुमार का उत्तर
ते अण्णमण्णस्स उ गरहमाणा,अक्खंति ऊ समणामाहणाय । सतो य अत्थी असतोय णत्थी, गरहामोदिgिण गरहामोकिंचि ॥ ण किंचि रूवेणऽभिधारयामो, सदिद्विमग्गं तुकरेमो पाउ । मग्गे इमे किट्टिए आरिपहि, अणुत्तरे सप्पुरिसेहिं अंजू॥ उडढं अहे य तिरिय दिसासु, तसा य जे थापरजे य पाणा। भूयाभिसंकाए दुगुंडमाणे, णो गरहइ बुसिमं किंचिलोए ॥
-सूय० अ० अागा १२ से १४/पृ० ४६२-३ आद्रक जी कहते है कि वे श्रमण और माहण परस्पर एक दूसरे की निन्दा करते हुए अपने-अपने दर्शन की प्रशंसा करते हैं। वे अपने दर्शन में कथित क्रिया के अनुष्ठान से पुण्य होना और परदर्शनोक्त क्रिया के अनुष्ठान से पुण्य न होना बतलाते है अतः मैं उनकी इस एकांत दृष्टि की निन्दा करता हूँ। और कुछ नहीं।
हम किसी के रूप और वेष आदि की निन्दा नहीं करते है किन्तु अपने दर्शन के मार्ग का प्रकाश करते है। यह मार्ग सर्वोत्तम है और आर्य सत्पुरुषों के द्वारा निर्दोष कहा गया है।
ऊपर, नीचे और तिरछे दिशाओं में रहने वाले जोत्रस और स्थावर प्राणी है उन प्राणियों की हिंसा से घृणा करने वाले संयमी पुरुष इस लोक में किसी की भी निन्दा नहीं करते है।
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