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दयाप्रधान धर्म की निंदा और हिंसा प्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला जो राजा एक भी शील रहित ब्राह्मण को भोजन कराता है, वह अंधकार युक्त नरक में जाता है फिर देव होने की तो बात ही क्या ?
.०४ सांख्य का प्रबाद
दुहओ विधम्मम्मि समुहामो, अस्सिं सुडिया तह एस कालें । आयारसीले बुइपह णाणे, ण संपराथम्मि बिसेसमत्थि ॥ अव्वत्तरुवं पुरिसं महंत, सणातर्ण अक्खणमव्ययं च । सव्वेसु भूपसु वि सव्वओ से, चंदो व ताराहिं समत्तरूवे ॥
- सूय० श्रु २ । ६ । गा ४६, ४७ | पृ० ४६६
एक दंडी लोग - आहत मत से अपने मत की तुल्यता सिद्ध करते हुए कहते हैहम और तुम दोनों ही धर्म में प्रवृत्त हैं । हम दोनों भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों काल में धर्म में स्थित हैं । हमारे दोनों के मत में आचारशील पुरुष ज्ञानी कहा गया है । तथा हमारे और तुम्हारे मत में संसार के स्वरूप में कोई भेद नहीं है।
यह पुरुष यानी जीवात्मा अव्यक्त है यानी यह इन्द्रिय और मन का विषय नहीं है । तथा यह लोक व्यापक और सनातन यानी नित्य है । यह क्षय और नाश से रहित है । यह जीवात्मा सब भूतों में संपूर्णरूप से रहता है जैसे चंद्रमा संपूर्ण ताराओं के साथ संपूर्ण रूप से संबंध करता है ।
आर्द्र कुमार का उत्तर
एवं ण मिज्जति ण संसरति, ण माहणा खत्तिय वेस पेसा । कीडा य पक्खीय सरीसिवाय, णरा य सव्वे तह देवलोगा ॥ जोगं अयाणित्तिह केवलेणं कहिति जे धम्ममजाणमाणा । णासेंति अप्पाण परंच णट्ठा, संसार घोरम्मि अणोरपारे U लोगं विजाणंतिह केचलेणं, पुण्णेण धम्मं समत्तं च कर्हिति जे उ, तारेंति अप्पाण जे गरहियं ठाणमिहावसंति, जे याविलोए
नाणेण
समाहिजुत्ता |
परंचतिण्णा ॥
चरणोषवेया ।
उदाहडं तं तु समं मईए, अहाउसो ! विथरियासमेव ॥
आद्र कुमार मुनि एक दंडियों के वाक्य को सुनकर उनका समाधान देते हुए
कहते है
- सू० श्रु २ । अ ६ । गा ४८ से ५१ । पृ० ४६७
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