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बाद में सेचनक हाथी वेग से दौड़ता हुआ आयेगा फलस्वरूप उसमें पड़ जायेगा। और मरण को प्राप्त होगा। कूणिक तुरन्त ही खेर के अंगारों से पूर्ण ऐसी एक खाई उसके आने के मार्ग में करायी। और उस पर आच्छादन कर लिया।
अब हल्ल-विहल स्वयं की विजय से गर्वित होकर से चनक हाथी पर बैठकर उस रात्रि में थी कूणिक के सैन्य पर धसारा करने के लिए विशाला में से निकले ।
मार्ग में पहले अंगार वाली खाई आई। फलस्वरूप तुरन्त ही सेचनक उसकी रचना को विभंग ज्ञान से जान लिया। इस कारण वह कांठे पर खड़ा रहा ।
चलाने का हल्ल-विष्टल्ल ने बहुत प्रयास किया फिर भी चला नहीं। फलस्वरूप हमविहल्ल उस हाथी का तिरस्कारकर कहा-कि-अरे सेचनक ! तू अव खरेखर पशु हुआ। इस कारण इस समय रण में जाने के लिए कायर होकर खड़ा रहा है ।
त्रिशलाका पर्व १०/सर्ग १२ विदेशगमनं बन्धुत्यागश्च त्वत्कृते कृतः। अस्मिन् दुर्व्यसने क्षिप्तस्त्वकृते ह्यार्यचेटकः ॥३०२।। वरं श्वा पोषितः श्रेयान् भक्तः स्वामिनियः सदा । न तु त्वं प्राणवालभ्या द्योऽस्मत्कार्यमुपक्षसे ॥३०॥ इति निर्भत्सितो हस्ति कुमारौ निजपृष्ठतः । वेगादुत्तारयामास भक्त मन्यो बलादपि ॥३०४॥ स्वयं तु तस्मिग्नंगारगर्ते झम्पां ददौ करी । सद्यो विपद्य चाद्यायामुत्पेदे नरकावनौ।
त्रिशलाका पर्व १./सर्ग १२ तुम्हारे लिये मैंने विदेशगमन और बन्धु का त्याग किया। उसी प्रकार तुम्हारे लिए आर्य चेटक को ऐसे दुर्व्यसनों में फेंका। जो स्वयं के स्व मी पर सदा भक्त रहते है। ऐसे प्राणियों का पोषण करना श्रेष्ठ है । परन्तु तुम्हारे जैसे को पोषण करना योग्य नहीं है कि जो स्वयं के प्राण को वल्लभ करके स्वामी के कार्य की उपेक्षा करता है।
ऐसे तिरस्कृत वचनों को सुनकर स्वयं भी आत्मा से भ्रष्ट मानता हुआ सेचनक हस्ति बलात्कार से हल्ल विहल्ल को स्वयं भी पृष्ट पर से नीचे उतारकर फेंक दिया और अंगार की खाई में पड़कर झपापात किया । तत्काल मृत्यु प्राप्त कर वह गजेन्द्र प्रथम नारकी में उत्पन्न हुआ। कुणिकहल्ल-विहल्ल का चारित्र ग्रहण
कुमारौ दध्यतुधिग्धिगावाभ्यां किमनुष्ठितम् । पशुत्वमावयोव्यक्त न तु सेचनकः पशुः ॥३०६।।
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