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________________ ( २६६ ) गामांतिया कण्हुइ रहस्सि-णो बहु संजया णोबहु घिरया सव्य-पाणया भूय-जीप सत्तेसु अप्पणा सच्चामोसाई एवं विपडिवदंति अहंण हतब्वो अण्णे हतब्धा अहं ण अशावेतन्वो अण्णे अज्झावेतवा अहं ण परियावेयवो अण्णे परियावेयव्वा अहं ण परिवेतन्यो अण्णे परिवेतन्वा अहं ण उवद्दवेयव्यो अण्णे उवहवेयव्वा । एवामेव इत्थिकामेहि मुच्छिया गढिया गिद्धा अज्झोववण्णा जाव कालमासे कालं किच्या अण्णतराइ असुराइ किचिसियाइ ठाणाइ उववत्तारो भवति। ततो विमुच्चमाणा भुज्जो एल-मूयत्ताए पञ्चायंति। एवं खलु समणाउसो तस्स निदाणस्स जाव णो संचाएति केवलि-पण्णत्तं धम्म सदहित्तपः वा। - सासु० द १० ___ उसकी जैन दर्शन से अन्य दर्शनों में रुचि होती है, उस रुचि मात्रा से वह इस प्रकार का हो जाता है जैसे—ये अरण्यवासी तापस, पर्ण कुटियों में रहने वाले तापस, ग्राम के समीप रहने वाले तापस और गुप्त कार्य करने वाले तापस जो बहुसंयत नहीं है। जो बहुत विरत नहीं है और जिन्होंने सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों की हिंसासे सर्वथा निवृत्ति नहीं की है और अपने आप सत्य और मिथ्या से मिश्रित भाषा का प्रयोग करते है और अपने दोषों का दूसरों पर आरोपण करते हैं जैसे-मुझे मत मारो, दूसरों को मारो, मुझे आदेश मत करो, दूसरों को आदेश करो, मुझको पीड़ित मत करो, दूसरों को पीड़ित करो, मुझको मत पकड़ो, दूसरों को पकड़ो, मुझको मत दुखाओ, दूसरों को दुःखाओ। इसी प्रकार हिंसा, मृषावाद और अदत्तानान में लगे रहते हैं और इनके साथ-आय स्त्री संबंधी कामभोगों में मूच्छित रहते हैं, बंधे रहते हैं, लोलुप और अत्यन्त आसक्त रहते है-वे मृत्यु के समय काल करके किसी एक असुरकुमार याकिल्विष देवों के स्थानों में उत्पन्न हो जाते हैं। फिर वे उन स्थानों से छूटकर पुनः पुनः भेड़ के समान मूक ( अस्पष्टवादी या गूंगा) बनकर मत्यलोक में उत्पन्न होते हैं। हे आयष्यमन् ! श्रमण ! उस निदान कर्म का पाप रूप यह फल हुआ कि उसके करने वाला केवली भगवान् के प्रतिपादित धर्म में भी श्रद्धा, विश्वास और मचि नहीं कर सकता अर्थात उसमें सम्यग् धर्म पर श्रद्धा करने की शक्ति भी नही रहती है। सातवाँ निदान एवं खलु समणाउसो मएधम्मे पण्णत्ते। जाच माणुसगा खल्लु कामभोगा अधुवा, तहेव । संति उड्ढे देवा देवलोयंसि। णो अण्णेसिं देवाणं अण्णे देवे अण्णं देविं अभिमुंजिय परियारेति। णो अपणो चेव अप्पाणं वेउब्धिय परियारेति, अप्पणिजिआओ देवीभो अभिमुंजिय परियारेति संति इमल्स तवनियस्स, तं सव्वं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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